
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया. इस फैसले ने पूरे देश में बाल यौन अपराध कानून (POCSO) की समझ को झकझोर कर रख दिया. कोर्ट ने एक ऐसे व्यक्ति को सजा से राहत दी जिसे POCSO एक्ट के तहत दोषी ठहराया गया था. क्योंकि पीड़िता ने खुद इस घटना को कभी ‘अपराध’ के तौर पर नहीं देखा.
2012 में एक 14 साल की लड़की ने अपनी मर्जी से 25 साल के युवक से शादी की थी. बाद में लड़की की मां ने अपहरण और बलात्कार का केस दर्ज कराया और युवक को 2022 में 20 साल की सजा मिली. लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने कह पीड़िता को सबसे ज्यादा चोट खुद कानून, समाज और अपने परिवार से मिली.
कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि पीड़िता आरोपी को सजा से बचाने के लिए खुद पुलिस और कोर्ट से लगातार संघर्ष करती रही. पीठ ने कहा, “ये मामला सिर्फ एक कानूनी बहस नहीं एक सामाजिक आईना है जो हमारी न्याय प्रणाली की खामियों को उजागर करता है.”
सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत विशेष शक्ति का प्रयोग कर आरोपी को सजा नहीं दी. कोर्ट ने कहा कि जब घटना हुई तब लड़की को स्वतंत्र निर्णय का कोई मौका नहीं मिला क्योंकि उसे परिवार, समाज और कानून ने पहले ही दोषी ठहरा दिया था.
इस मामले से जुड़ी एक और बड़ी बात सामने आई जब सुप्रीम कोर्ट ने कलकत्ता हाईकोर्ट की उन टिप्पणियों की आलोचना की जिसमें किशोरियों को “यौन इच्छाओं पर नियंत्रण” की नसीहत दी गई थी. सुप्रीम कोर्ट ने इन्हें “पीड़िता को शर्मिंदा करने वाला और रूढ़िवादी” बताया और साफ किया कि ऐसे विचार संविधान की भावना के खिलाफ हैं.
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