ब्‍लॉगर

पढ़ाई से मोहभंग की वजह और भी है

– डॉ. राकेश राणा

विद्यालयों के प्रति विद्यार्थियों का होता मोहभंग, हमें सोचने पर विवश करता है। आखिर ऐसे कौन से कारण हैं जो विद्यार्थियों को इस स्तर तक विमुख कर रहे हैं कि वे मौज-मस्ती की उम्र में भी कॉलेज जैसे आनन्द स्थलों पर झांकना पसंद नहीं कर रहे हैं। हम निरन्तर स्कूल, कॉलेज और विद्यालयों-विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ाते जा रहे हैं। दूसरी तरफ बच्चे इनमें आ नहीं रहे हैं। यह गंभीर चिंता का विषय है।

मजे की बात यह है कि नामांकन का आंकड़ा बढ़ रहा है। कहीं-कहीं और कुछ विषयों एवं क्षेत्रों में तो यह उल्लेखनीय ढंग से दर्ज हो रहा है। देश के कुछ बड़े शहरों और प्रतिष्ठत संस्थानों में दाखिलों को लेकर जो मारा-मारी हर सत्र में दिखती है वह विरोधाभासों के साथ इस समस्या की जटिलता को उजागर करती है। प्रत्येक बच्चा पढ़ना चाहता है और प्रत्येक अभिभावक अपने बच्चों को पढ़ाना चाहता है। फिर भी विद्यार्थी विद्यालय और कक्षाओं में नहीं हैं। अभी कोरोना संकट के चलते यह स्थिति और पेचीदा होती जा रही है। आखिर बच्चों की अनुपस्थिति की वजह क्या है? क्या उनकी अध्ययन में कोई रुचि नहीं है? क्या कक्षाएं इतनी अनाकर्षित हो गई हैं? क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था इतनी निरुद्देश्य हो गयी है? क्या गुरु-ब्रहम् की संस्कृति का मूल्य इतना तिरोहित हो गया है?

उथली वजहों में पाठ्यक्रमों का रुचिकर न होना, पाठ्यक्रमों का नीरस, बोझिल और एक ही ढर्रे पर बने रहना, पाठयक्रमों का विद्यार्थियों की रुचियों से दूर-दूर तक ताल्लुक न होना, महाविद्यालय प्रांगण का नीरस वातावरण, बदलते दौर में शिक्षक-शिक्षार्थी के मध्य समरसता का अभाव, युवक-युवतियों के बदलते व्यवहार के प्रति उपेक्षा भाव, परम्परागत दिनचर्या में नवीनता का अभाव में इसकी ढेरों वजह खोजी जा सकती है। शिक्षा-शिक्षक-विद्यालय-पाठ्यक्रम-समुदाय इन सबके बीच कहीं कोई तारतम्य इस पूरी व्यवस्था में नहीं है, यह सच है। विद्यार्थियों का विद्यालयों से विलगाव बहुत से सामाजिक-आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक कारकों के कारण हुआ है। इन विभिन्न कारणों के केन्द्र में शिक्षा व्यवस्था की बहुत-सी खामियां तो हैं ही। इस कटघरे में शिक्षक की भूमिका प्रमुखता से आ रही है।

शिक्षा का छात्रों को मौजूदा वातावरण तथा वास्तविक एवं सामाजिक जीवन से कहीं कोई सम्बन्ध नहीं दिखता है। न सुरक्षित भविष्य की आश्वस्ति है, न व्यवसायपरक व्यक्तित्व का आत्मविश्वास है। न समाज या देश के प्रति स्वयं को अर्थवान महसूस करने की वजह है। ऐसी शिक्षा व्यवस्था जो नौजवानों के भविष्य को सुनिश्चित न कर रहीं हो तो वह किसी को अपनी ओर आकर्षित कैसे कर सकती है? दूसरी ओर परीक्षा प्रणाली ने शिक्षा के प्रति जो अनास्था बढ़ायी है वह कोई छोटा खतरा नहीं है। जिस मूल्यांकन पद्धति की विश्वसनीयता और वैधता ही संदिग्ध हो उसमें व्यापकता और वस्तुनिष्ठता हो भी तो भी वह अपने पात्रों में आत्मविश्वास कहां से पैदा कर देगी।

कक्षाओं में अनुपस्थिति के आर्थिक कारण भी अहम हैं। वहीं समाज का नैतिक पतन एक सतत संकट है। शिक्षकों द्वारा छात्रों के प्रति स्नेह या भयवश दर्शायी गयी अवास्तविक उपस्थिति की उदारता भी बच्चों को विद्यालय और कक्षाओं से दूर कर रही है। जहां शिक्षण परीक्षा के अधीन हो, पाठ्यक्रम पूरा करना ही सत्र की शर्त हो। जहां व्यापक उद्देश्यों वाली परीक्षा प्रणाली का किसी को दूर तक भान ना हो। गेस-पेपर्स, मॉडल ऑनश्वर, गाइड और शार्ट-कट से तरासे गये युवा दिमागों को जिन्दगी में शार्ट-कट ढूंढने से कैसे रोका जा सकता है। जब एक रात के अध्ययन से ही उत्तीर्ण हुआ जा सकता है, तो कक्षाध्ययन की क्या आवश्यकता? समाज में घर करती यह सोच इस समस्या को और भी जटिल बना देती है। जो शिक्षण परीक्षण पर पूरा हो जाता हो। उससे राष्ट्र निर्माण जैसा महानतम लक्ष्य कैसे पाया जा सकता है।

बच्चों को कक्षा से दूर ले जाने की ढेरों वजहों में से बड़ी वजह विद्यार्थियों की स्तर-भिन्नता है। कुछ कक्षा से नीचे अनुभव करते हैं तो कुछ अपने लिए वहां कुछ भी नहीं पाते हैं। इस हीनता-श्रेष्ठता में ही अनुपस्थिति के अंकुर फूटते हैं। जो विद्यार्थियों को धीरे-धीरे कक्षाओं से विमुख कर देते हैं। कक्षा के ढाँचे में कुछ भी उन्हें लुभावना नहीं लगता। शिक्षा जगत के अनुभव बताते हैं कि बच्चे कक्षा से कतराते हैं। इस सार्वभौमिक समस्या के पीछे सीखने की क्षमताओं में भिन्नता है। स्तरानुसार एकसाथ मिलकर काम करना सबको अच्छा लगता है। स्तरानुसार शिक्षण सुनिश्चित करना ही सफल-असफल अध्यापक की कसौटी है। जब बच्चों के अपनी कक्षा के ज्ञान-स्तर आधारित समूह नहीं बन पाते हैं तो भी वे कक्षा से जी चुराने लगते हैं और फिर धीरे-धीरे विद्यालय से भी।

शिक्षा प्रशासन की उदासीनता, शिक्षकों में योग्यता एवं अनुभव का अभाव, चलताऊ ढर्रें पर चलने वाला शिक्षण, विद्यालय-कक्षाओं मे बैठने की समुचित व्यवस्था का अभाव, शिक्षण-प्रशिक्षण की सुविधाओं और संसाधनों का अभाव, पुस्तकालयों में पुस्तकों का अकाल, यह पूरा परिदृश्य नयी पीढ़ी को लुभाने में कोई दिलचस्पी नहीं रखता है। अभाव, नीरसता, प्रतिस्पर्धा, प्रतिबंधिता, व्यक्तिवादिता और निश्चित ढर्रे में ढली दिनचर्या तथा शिक्षकों की स्थायी मानसिकता सबके सब विद्यार्थियों के विरुद्ध जैसे अभियान छेड़े हुए हैं, उन्हें शिक्षालय से दूर करने का। स्वाधीनता के बाद शिक्षा व्यवस्था में जो आमूल परिवर्तन होने थे उनसे हम चूक गये। हमने इसे गंभीरता से नहीं लिया। इसलिए शिक्षा ने भी धीरे-धीरे हमें गंभीरता से लेना छोड़ दिया।

शिक्षा का व्यक्ति, समाज और राष्ट्र से संबंध शिथिल हो चला है। परिणाम शिक्षा नीरस प्रतियोगिताओं से लैस अत्यधिक असुरक्षित आार्थिक परिस्थितियों से निपटने का असफल प्रयास बनकर रह गई है। इस ढाँचे में न पाठ्यक्रम प्रभावी है, न पठन-पाठन का परिदृश्य। विषयों के जीवन से जुड़ाव का दूर-दूर तक कोई सूत्र मौजूदा शिक्षा प्रणाली में नहीं दिखता है। समाज से कटा समाज शास्त्र और राजनीति से रिक्त राजनीति शास्त्र की तरह इन्हें आखिर कोई कबतक रटे। कुछ भी सीखने की प्रक्रिया में सन्दर्भ महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

दरअसल पूरे स्कूली जीवन को हमने इतना कृत्रिम बना दिया है कि सामाज की वास्तविकताओं से बच्चा उसे जीवनभर जोड़ ही नहीं पाता है। नयी शिक्षा नीति-2020 से कुछ आशाएं उभरी हैं। जिसमें इस नीरसता को तोड़ने के प्रयास दिखते हैं। बच्चों के लिए शिक्षा को रुचिकर बनाना ही। अभी शिक्षक-शिक्षा-परीक्षा के अर्न्तविरोध विद्यार्थियों को विद्यालयों से दूर ले जा रहे हैं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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