वॉशिंगटन। अफगानिस्तान (Afghanistan) में अब तालिबान (Taliban) का राज है। अमेरिका(America) ने बीते दो दशकों में 83 अरब डॉलर (6.17 लाख करोड़ रुपये) खर्च (6.17 lakh crores spent) कर अफगान सेना(Afghan Army) को तैयार किया था लेकिन वह तालिबान(Taliban) के खिलाफ ताश के पत्तों की तरह ढह गई। बिना गोली चलाए ही सरेंडर कर दिया। मौजूदा हालात में देखें तो इस भारी-भरकम अमेरिकी निवेश का सीधा फायदा सिर्फ तालिबान (Taliban) को मिलने वाला है। उसने न सिर्फ अफगानी सत्ता कब्जा ली है बल्कि अमेरिका से मिले हथियार, गोलाबारूद और हेलिकॉप्टर अब तालिबान के शिकंजे में हैं। वैसे तो अफगान सेना और पुलिस बल को मजबूत बनाने में अमेरिकी विफलता और फौज के पतन के कारणों का अरसे तक विश्लेषण किया जाएगा। लेकिन यह तो साफ है कि अमेरिका के साथ जो इराक में हुआ, अफगानिस्तान में उससे कुछ अलग नहीं हुआ। अफगान सेना वाकई कमजोर थी। उसके पास उन्नत हथियार तो थे पर लड़ाई का जज्बा नहीं था।
अफगानिस्तान में 2001 में युद्ध देख चुके और कार्यवाहक रक्षा मंत्री रहे क्रिस मिलर का कहना है, अमेरिका की तेज वापसी से अफगान फौज को यह संकेत मिला कि उन्हें जंग में अकेला छोड़ दिया गया, जिससे उनका मनोबल कमजोर हो गया। कुछ अन्य विशेषज्ञों का मानना है कि अफगान सैन्य निर्माण और तैयारी पूरी तरह अमेरिका पर निर्भर थी। यहां तक कि पेंटागन ने अफगान सैनिकों को वेतन तक दिया था।
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