ब्‍लॉगर

स्वतंत्रता संग्राम अविस्मरणीय है

– गिरीश्वर मिश्र

‘अमृत’ अर्थात जो मरा नहीं है , जीवित और प्राणवान है। हम सभी भारतवासी देश की स्वतंत्रता की कामना करते हैं और उसकी अमरता का स्वप्न देखते हैं, पर हम अक्सर स्वतंत्रता को काल के आयाम में एक बिन्दु के रूप में देखते हैं और भूल जाते हैं कि वह असंख्य भारतीयों की कुर्बानी का फल है। यह साम्राज्यवादी अंग्रेजों के साथ हुए बहु आयामी , लम्बे और जटिल संघर्ष की परिणति थी। अब जब अमृत महोत्सव माया जा रहा है तो स्वतंत्रता के सत्य को अंगीकार करते हुए उसकी चेतना की सामाजिक गूंज जरूरी है और यह भी कि हर भारतीय इसे अपना दायित्व समझे कि स्वतंत्रता की भावना को सजगता के साथ सुरक्षित और समृद्ध करते रहना है। लोकतंत्र की पद्धति में यह और भी जरूरी हो जाता है क्योंकि स्वतंत्रता लोक की होती है, लोक के लिए होती है और लोक के द्वारा होती है। इस दृष्टि से भारत देश द्वारा स्वतंत्रता अर्जित करने के आख्यान को जानना- समझना अनिवार्य हो जाता है।

भारत की राष्ट्रीय चेतना को लेकर अक्सर यह विचार सुनने में आता है कि इसका विकास अंग्रेजों द्वारा भारत में लाई गई अंग्रेजी शिक्षा की देन है। यह कहते हुए देश की तत्कालीन परिस्थितियों और अंग्रेजों के निरंकुश शासन से उपजी दुर्वह पीड़ा की भूमिका को नजरअंदाज कर दिया जाता है। जब अंग्रेजों के निहित स्वार्थ खुल कर सामने आ गए और भारतीय समाज ने महसूस करना शुरू किया कि गुलामी की जंजीरों से मुक्ति में ही अपना हित है, तब स्वातंत्र्य की तीव्र चेतना जगी। उन्नीसवीं सदी के अंत होते-होते भारतीय समाज में राष्ट्रवाद की भावना आन्दोलन का आकार लेने लगी थी। उस बीच समाज में शिक्षित वर्ग उभरा और उद्योग भी अस्तित्व में आए। इन वर्गों ने भारतीयता का पक्ष लिया और भारतीय हितों की दिन प्रतिदिन बढ़ती अनदेखी को पहचाना। वस्तुतः भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों के लिए अंग्रेजी शासन द्वारा किस्म-किस्म की परेशानियां खड़ी की जा रही थीं , शोषण के नए नए तरीके ईजाद किये जा रहे थे और अमानवीय तरीके बर्ताव की घटनाएं बढ़ रही थीं। व्यापारी और उद्योगपति पढ़े-लिखे तबके के लोग , किसान , मजदूर सभी त्रस्त हो रहे थे थे। प्रेस की आजादी और विधान-सभा जैसी संस्थाओं में स्वशासन और पूर्ण स्वतंत्रता की आकांक्षा भी उठान पर थी रही थी। कुल मिला कर भारतीय हित और अंग्रेजी हुकूमत का हित एक दूसरे के साथ टकरा रहे थे. यह टकराव ही भारतीय समाज में राष्ट्रवाद की तीव्र लालसा का कारण बना।

यह सही है कि आधुनिक शिक्षा ने अनेक राष्ट्र भक्तों को आधुनिक लोकतंत्र के स्वरूप और विचारों में प्रवेश करने का मार्ग प्रशस्त किया और स्वराज्य पाने की मनोवृत्ति को बल प्रदान किया। यही नहीं, आधुनिक उदारवादी नजरिये से सोचने और लोकतांत्रिक संस्थाओं की परिकल्पना को सहज बनाने में भी मदद मिली, परन्तु अंग्रेजी राज की शिक्षा-योजना का एकमेव उद्देश्य उनके औपनिवेशिक शासन में सहायता के लिए आवश्यक कर्मी मुहैया करना ही ही बनी रही बना रहा। इसके चलते आम लोगों के लिए शिक्षा मृग मरीचिका ही बनी रही।

निरक्षरता देश की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक प्रगति में बाधक थी। उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा की उपलब्धता नगण्य थी। खर्चीली होने के कारण वह साधारण जनता की पहुंच से परे थी। अंग्रेज ऐसा इसलिए भी चाहते थे कि क्योंकि उन्ह्ने यह भय बना हुआ था कि उच्च शिक्षा के प्रसार से समाज में असंतोष बढेगा और अंग्रेजी राज के खिलाफ विद्रोह जैसी स्थिति के लिए उकसावा होगा। इसके चलते शिक्षा की सुविधा देने के लिए सरकार का हाथ तंग रहता था। जो शिक्षा मुहैया कराई जा रही थी, वह इस अर्थ में भी ठीक नहीं थी कि वह सामान्य जन-जीवन और संस्कृति से प्राय: कटी रहती थी। उसमें भारतीय जीवन की समस्याओं का विवेचन और उनका समाधान नहीं रहता था। साथ ही इतिहास को तोड़ मरोड़ कर समाज की अस्मिता और सांस्कृतिक मूल्यों को व्यर्थ घोषित किया जाता था। ऊपर से शिक्षा का माध्यम मातृ भाषा न हो कर अंग्रेजी होने के कारण समाज में वर्ग भेद पैदा कर उच्च और निम्न वर्ग के बीच एक खाई भी खोदी जा रही थी। इस तरह शिक्षित और अनपढ़ के बीच भेद अंतराल बढ़ता गया। आम जनोपयोगी शिक्षा की उपेक्षा और ऐसे कर्मचारी तैयार करना जो अंग्रेजी राज-सत्ता के संचालन को सुदृढ़ बना सके, इस नीति के तहत शिक्षा चलती रही। यह जरूर हुआ कि अंग्रेजी के ज्ञान के द्वारा शिक्षित कुछ भारतीय यूरोप के राजनैतिक विचारधारा से परिचित हुए। इससे मची वैचारिक खलबली ने अंग्रेजी सरकार को परेशान किया और फिर उस पर भी रोक लग गई।

इस तरह भारतीय समाज पर आधुनिक शिक्षा के दोहरे असर हो रहे थे। विश्व की संस्कृति की खिड़की भी खुली और भारत को विश्व के साथ संवाद की जरूरत भी अनुभव हुई। यह भी अनुभव हुआ कि अंग्रेजों ने भारत पर अपने शासन के दौरान जिस तरह के नए आर्थिक और राजनैतिक प्रश्न खड़े किए, उनके समाधान नए ढंग के ज्ञान में ही मौजूद थे। स्वतंत्रता संग्राम में अगली पंक्ति के सभी राजनेता अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त किए हुए थे। शिक्षित आधुनिक मध्य वर्ग बनने लगा था, पर अधिकांश भारत गरीब और निरक्षर ही था। अर्थ व्यवस्था का औपनिवेशिक ढांचा निश्चित ही इस गरीबी का मुख्य कारण था। इस स्थिति से उबरने के लिए ज्ञान (शिक्षा) और अर्थ (वित्त) के साधनों का लोकतंत्रीकरण ही एक मात्र उपाय था।

स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय बुद्धिजीवियों की अग्रणी और निर्णायक भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। प्रगतिशील सामाजिक-धार्मिक सुधार और राजनीतिक राष्ट्रवादी आन्दोलनों का सूत्रपात उन्होंने ही किया। राष्ट्रीयता और लोक तंत्र से ओतप्रोत साहित्य रचा गया और अनेक विद्वान और दार्शनिक वैज्ञानिक उभरे. इन्होने पाश्चात्य संस्कृति को समझा और नए भारत की समस्याओं को भी पहचाना।

सन 1920 से गांधी जी का भारतीय राजनीति में सक्रिय अवतरण हुआ और पूरे आन्दोलन को जनता के करीब लाया गया। जन साधारण भी स्वराज्य के लिए मर मिटने को तैयार हो गया। गांधी जी के प्रभाव में सत्याग्रह, भूख हड़ताल, जेल जाना, कर न देना आदि नए तरीके अपनाए गए। गांधी जी ने अस्पृश्यता के खिलाफ मोर्चा लिया , शिक्षा, कुटीर उद्योग, भाषा , स्वावलंबन आदि को लेकर जमीनी स्तर पर कार्य किया। उन्होंने ‘स्वदेशी’ के विचार पर बल दिया और स्वयं को वेश-भूषा , आचरण और जीवन शैली में आम भारतीय के सच्चे प्रतिनिधि के रूप में ढाल लिया। छुआछूत दूर करना, हिन्दू मुस्लिम जनों के बीच साम्प्रदायिक सद्भाव और स्त्रियों की स्थिति को सुधारना गांधी जी के प्रमुख लक्ष्य बन गए। इन लक्ष्यों के लिए वे आजीवन कार्य करते रहे। सन 1930 के बाद देश के कोने कोने में असहयोग आन्दोलन चला और अनेक घटनाएं घटित हुईं- दांडी नमक सत्याग्रह हुआ , गांधी इरविन पैक्ट हुआ , भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी हुई।

नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फ़ौज बनाई पर नियति ने कुछ और लिखा था। नेता जी की वायुयान दुर्घटना में मृत्यु हो गई। वर्ष 1942 में ‘अंग्रेजों भारत छोडो’ के नारे के साथ तीव्र आन्दोलन छिड़ा. अंग्रजों को लग गया कि अब भारत पर शासन उनके बस में नहीं है। अंतत: लार्ड माउंट बेटन को भारत विभाजन को अंजाम देने के लिए भेजा गया। पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में सत्ता परिवर्तन हुआ पर विभाजन के दंश के साथ। सरदार पटेल ने सभी राजाओं को भारत में सम्मिलित करने का महान उद्यम किया। इस सारे घटना क्रम में महात्मा गांधी महानायक थे। पन्द्रह अगस्त 1947 को जब स्वतंत्रता मिली ,तब वह नोआखाली में सद्भाव स्थापित करने में लगे थे। स्वतंत्र भारत में वे पांच माह जीवित रहे। अंतिम दिनों में वे उदास , निराश और मोह भंग के साथ वे व्यथित थे कि उनकी स्वतंत्र भारत की कल्पना कुछ और थी। फिर वह दुखद क्षण भी आया जब अहिंसा के पुजारी की हत्या हुई और सभी स्तब्ध रह गए।

सचमुच भारतीय समाज ने स्वतंत्रता को बड़े तप से अर्जित किया है। तब से आज तक देश में बहुत कुछ हुआ। देश की स्वतंत्रता का कोई मोल नहीं है। परन्तु समय बीतने के साथ स्वतंत्रता का सच भी लोक स्मृति से तिरोहित होता जा रहा है और स्वतंत्रता का आशय भी कुछ-कुछ ‘उन्मुक्तता’ जैसे अभिप्राय को व्यक्त करने वाला समझा जाने लगा है। आज हममें से बहुतेरे पद , प्रतिष्ठा , संपत्ति पर अपना आधिपत्य स्थापित करने की छूट को ही स्वतंत्रता मानने लगे हैं। इन सबका लोभ आज अनैतिक काम करने और अपराध करने तक को प्रेरित कर रहा है। हम यह भूल जाते हैं कि स्वतंत्रता वास्तु न हो कर संयमित जीवन पद्धति होती है, जिसमे अपने को संचालित करने की व्यवस्था (स्वतन्त्र !) को चुनने की छूट होती है। इस तरह स्वतंत्रता निरपेक्ष न हो कर देश काल सापेक्ष होती है। समय के साथ सयाने होते राष्ट्र ने बहुतेरे उतार-चढ़ाव देखे। जन-गण का मन और उसके नायक निरंतर गतिमान हैं। सारी विसंगतियों के बीच देश की यात्रा एक अच्छे भविष्य के स्वप्न के साथ आगे चल रही है। द्वंद्व और संघर्ष जीवन्तता के भी लक्षण हैं . स्वतंत्रता का अमृत बना रहे और हम उससे तृप्त हों, इसके लिए हमें विवेक के साथ अपने दायित्व भी स्वीकार करने होंगे।

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं)

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