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ये डिजिटल सहाफत का दौर है साब इसमे क़लम नहीं टेक्निक चलती है

September 23, 2022

आज तू है, कल कोई और होगा
ये भी एक दौर है, वो भी एक दौर होगा।

सहाफत (पत्रकारिता) में किस कदर का बदलाव आ चुका हेगा भाई मियां के हम जैसे ओल्ड माडिल के क़लम घिस्सु सहाफत की इस नई डिजिटल जमात के सामने तो एकदम अनपढ़ ही हैं। दरअसल ये डिजिटल या मोबाइल जर्नलिज़्म (मोजो) का दौर है मियां। वो दिन हवा हुए साब जब तीस चालीस बरस पुराने क़दीमी सहाफी (पत्रकार) न्यूज़ प्रिंट के हल्के पीले रंग के खुरदुरे कागज़़ पे फाउंटेनपेन से गर्दन टेड़ी करके खबरें लिखा करते थे। रिपोर्टरों की डेस्क पे चपरासी प्रिटिंग सेक्शन से वेस्ट न्यूज़ प्रिंट के कागज़़ रख दिया करते। इन कागज़़ों को पत्रकार देर रात तलक काले किया करते थे। ये तो हुई आज बुढ़ा चुके सहाफियों के माज़ी की मुख्तसर तस्वीर। आइये आपको आजके डिजिटली साउंड सहाफियों (पत्रकारों) की लेटेस्ट वर्किंग से वाकिफ कराऊं। तस्वीर में नुमायां हो रही ये बच्ची शुभांगिनी दुबे है। मोहतरमा दैनिक भास्कर डॉट कॉम की डिजिटल रिपोर्टर हैं। इन्हें हम आज की सहाफत के तेज़तर्रार और जदीद (आधुनिक) डिजिटल जर्नलिज़्म का प्रतीक मान सकते हैं। मैंने शुभांगिनी को कभी फील्ड में तो कभी प्रेस कॉम्प्लेक्स में अपने दोपहिया पे खबरों के लिए दौड़ते भागते देखा है। पीठ पे पिट्टू बेग, कानो में वायरलेस हेडफोन लगाए इस 26 बरस की डिजिटल रिपोर्टर को इनके संगी साथी सबसे कमसिन सीनियर रिपोर्टर कहते हैं। मैं शुभांगिनी को नहीं जानता था। बाक़ी इस कालम में नोजवान बच्चों की डिजिटल सहाफत पे लिखने की तमन्ना दिल मे ज़रूर थी। एक दिन प्रेस काम्पलेक्स में अपनी गाड़ी पार्क करने के बाद इस बालिका को मैंने अपना परिचय दिया। इत्तफ़ाक़ से ये मेरे नाम और काम से वाकिफ थीं। मैंने गुज़ारिश करी की मैं आपको डिजिटल या मोजो जर्नलिज़्म का प्रतीक मानते हुए इस हुनर पे लिखना चाहता हूं। उम्रदराज़ लोगों के सामने बच्चे खुल जाते हैं। लिहाज़ा मेरे इसरार पे शुभांगिनी ने मुझे मोबाइल जर्नलिज़्म या डिजिटल जर्नलिज़्म की लेटेस्ट टेक्निक के बारे में बताया। माखनलाल की 2016 की पासआउट ये सहाफी पूरी तरह डिजिटल सहाफत करती हैं। शुभांगिनी को देख के मुझे अस्सी की दहाई की सहाफत का वो दौर याद आ गया जब पत्रकार हाथ या झोले में एक डायरी और जेब मे क़लम फसाये अपनी मोपेड या फटीचर सायकिल पे निकलते थे। आज के डिजिटल जर्नलिस्ट के पिट्टू बेग से क़लम और डायरी गायब हो चुकी है। इसके बरक्स इनके बेग में चालीस-पचास हज़ार का मोबाइल, ढाई-तीन हज़ार का वायरलेस हेडफोन, पॉवर बैकअप, सेल्फी स्टिक और माइक आईडी रहता है।


डिजिटल जर्नलिज़्म बहुत फास्ट है। मकसद ये के पुराने दौर की तरह दिन भर भटकने के बाद शाम को दफ़्तर आके कागज़़ काले करने के ज़माने लद चुके हैं। अब तो शुभांगिनी जैसे डिजिटल मोबाइल जर्नलिस्ट किसी पेड़ की छांव या किसी रेस्त्रां में बैठ के या ऑन द स्पॉट खबर बना के सिस्टम पे अपलोड कर दिया करते हैं। ये खबर को आज, अभी और इसी वक़्त पेश करने का फंडा है साब। हाथ से खबर टाइप करने के बजाए ये लोग स्पीक एंड टाइप रिग्निशन टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करते हैं। ये लोग कंटेन्ट मैनेजमेंट सिस्टम (सीएमएस) पे अपनी खबर डाल देते हैं। इनके मेल आईडी पे क्लाउड बेस डॉक एप्लिकेशन पे भी खबर सेव हो जाती है। शुभांगिनी या इन जैसे डिजिटल रिपोर्टरों को मोबाइल से खबर या स्टोरी के विज़ुअल्स शूट करने के बाद उसे इन शॉट एप पे प्राइमरी कंटेंट के साथ एडिट करना, वॉइस ओवर के साथ सीएमएस पे अपलोड करना भी बखूबी आता है। इनकी प्रोफेशनल तेज़ी प्रिंट वालों से कहीं तेज़ होती है। बाद में आफिस की ग्राफिक टीम इनकी खबर का थंबनेल और ग्राफिक वगैरह थोड़ा ठीक कर देती है। गोया के डिजिटल जर्नलिज़्म में आपको वीडियो एडिटिंग वॉइस ओवर, कॉपी राइटिंग वगैरह में महारत होना लाजमी है। मक़सद ये है मियां के मोजो में क़लम किनार कर दी गई है। यहां बहुत अच्छे लिख्खाडों के बजाए टेक्निकली साउंड बन्दा चाहिए। इनकीं खबरें कंटेंट बेज़्ड होती हैं। जिसे फटाफट के अंदाज़ में पढ़ा या देखा जा सके। मैं शुभांगिनी जैसे तमाम डिजीटल रिपोर्टरों के हुनर को सलाम करता हूं। ये लोग ही मुस्तकबिल के सहाफी हैं। बाकी ये भी तय है कि हम जैसे ओल्ड माडिल क़लम घिस्सुओं की ये आखरी पीढ़ी है। वो दिन दूर नईं जब आने वाले सालों में छपे हुए अखबार पुराने दौर की बात हो जाएंगे।

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