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विकसित होते भारत की नई समस्या…, तेज बारिश में मिनटों में डूब रहे शहर

July 30, 2025

नई दिल्ली। जब भी बारिश का मौसम (Rainy season) आता है, देश के बड़े शहर एक अजीब सी बेबसी में घिर जाते हैं। दिल्ली हो या मुंबई, बेंगलुरु हो या गुरुग्राम—बस दो-तीन घंटे की तेज बारिश (Heavy rain) और पूरा शहर पानी में डूब जाता है। इस बार भी यही हुआ। मई की शुरुआत में बेंगलुरु (Bengaluru) में जब आसमान फटा तो शहर का हाल देखने लायक नहीं रह गया। आईटी कंपनियों के कर्मचारियों को नावों से ऑफिस पहुंचाना पड़ा। मुंबई (Mumbai) में अंधेरी सबवे बंद करना पड़ा। दिल्ली की सड़कें नदी बन गईं। गुड़गांव में तो हालत यह थी कि लोग अपनी गाड़ियां छोड़कर पैदल घर जाने को मजबूर हो गए।

सवाल यह है कि ऐसा क्यों होता है? क्या वाकई बादल फट रहे हैं या हमारी व्यवस्था फट रही है? जवाब स्पष्ट है। जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश का पैटर्न बदल गया है। अब लंबी रिमझिम बारिश की जगह छोटे समय में भारी बारिश होती है। आईआईटी गांधीनगर के एक अध्ययन के मुताबिक, शहरी बाढ़ की 75 फीसदी घटनाएं अब इन्हीं क्लाउडबर्स्ट से हो रही हैं। लेकिन असली समस्या यह है कि हमारे शहरों की नालियां आज भी अंग्रेजों के जमाने की हैं। वो डिजाइन 15 मिलीमीटर प्रति घंटे की बारिश के लिए बनाई गई थी जबकि आज की क्लाउडबर्स्ट में 40-80 मिलीमीटर बारिश मिनटों में गिर जाती है। यह ऐसा है जैसे एक छोटे से नल से बड़े टैंक को भरने की कोशिश करना।


प्लास्टिक का जाल और कंक्रीट का जंगल
समस्या सिर्फ पुरानी नालियों की नहीं है। हमारे शहरों में प्लास्टिक की समस्या इतनी बढ़ गई है कि हर बारिश से पहले नगर निगम के कर्मचारी सफाई अभियान चलाते हैं। इस साल भी बेंगलुरु में सिर्फ दो छोटे हिस्सों से सौ किलो प्लास्टिक, गीले वाइप्स और ई-कॉमर्स के डिब्बे निकाले गए1। लेकिन यह अस्थायी उपाय है। जब तक लोग प्लास्टिक फेंकते रहेंगे, नालियां बंद होती रहेंगी। दूसरी बड़ी समस्या है कंक्रीट का जंगल। मुंबई के कमर्शियल एरिया मैंग्रोव दलदल को भरकर बने हैं। दिल्ली के मेट्रो पियर यमुना के बाढ़ के मैदान में खड़े हैं। प्राकृतिक भंडारण की जगह कंक्रीट के फर्श ने ले ली है। मिट्टी ने पानी सोखना छोड़ दिया है। तीसरी समस्या है कि कई शहरों में बारिश का पानी और सीवर एक ही पाइप में बहते हैं। नतीजा यह होता है कि मल-मूत्र का कचरा ढलान को रोक देता है और पानी का निकास रुक जाता है।

पैसे की कमी या नीयत की?
अब सवाल यह आता है कि क्या पैसे की कमी है? बिल्कुल नहीं। AMRUT योजना से लेकर स्मार्ट सिटी मिशन तक, शहरी जल निकासी के लिए हजारों करोड़ रुपए आबंटित किए गए हैं1। स्मार्ट सिटी मिशन की 8,075 में से 7,380 परियोजनाएं पूरी हो चुकी हैं लेकिन जल निकासी पर खर्च नाकाफी रहा है। असली संकट है बहु-एजेंसी नियंत्रण। नालियां PWD की, सीवर जल बोर्ड का, सड़कें नगर निगम की और नदी-तट सिंचाई विभाग का। नतीजा—सामूहिक जिम्मेदारी के नाम पर सामूहिक लापरवाही। कोई किसी का काम नहीं समझता।

कितनी भारी कीमत चुका रहे हैं?
इस साल मई में बेंगलुरु की 12 घंटे की बारिश ने आईटी कंपनियों को लगभग 200 करोड़ रुपए का नुकसान दिया1। तीन लोगों की जान गई और 500 घरों में पानी भर गया। 2005 में मुंबई की बाढ़ में 1,056 लोग मारे गए थे और 9,000 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था1। 2023 में दिल्ली में यमुना की बाढ़ से दैनिक 300 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ और 10,000 से ज्यादा लोगों को अस्थायी शिविरों में रहना पड़ा। कुछ घंटों का जल भराव महीनों की अर्थव्यवस्था डुबो देता है। फिर भी नाली को इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं, सफाई का काम मानने की आदत बनी हुई है।

समाधान के रास्ते
सबसे पहले तो ड्रेनेज को यूटिलिटी का दर्जा देना होगा। सिंगापुर हर साल अपने ड्रेनेज मास्टर प्लान का ऑडिट करता है। LiDAR और CCTV सर्वेक्षण से पाइप का नक्शा बनाता है। हमें भी यही करना होगा। प्लास्टिक की समस्या के लिए सरचार्ज लगाना होगा और प्लास्टिक रोड प्रोजेक्ट को बढ़ावा देना होगा। खगड़िया मॉडल इसका अच्छा उदाहरण है। स्पंज पार्क और रेन गार्डन बनाने होंगे। ऐसे प्रयोग से चेन्नई ने 57 पार्कों से जल भराव घटाया है। शहरी जमीन का 70-90 फीसदी हिस्सा कंक्रीट से ढका है, इसे बदलना होगा। नाले और सीवर को अलग करना होगा। सफाई के लिए अलग बजट चाहिए और उस बजट के उपयोग के लिए ईमानदारी। ड्रेनेज को सिटी यूटिलिटी का दर्जा देकर प्रॉपर्टी टैक्स पर एक रुपया प्रति स्क्वेयर फुट का उपकर लगाना पड़े तो लगाना चाहिए एकीकृत जल निकासी प्राधिकरण बनाना होगा। पिंपरी-चिंचवड़ जैसा स्ट्रीट स्केल डैशबोर्ड हर शहर में चाहिए। हर शहर में कम से कम एक शहरी हाइड्रॉलॉजिस्ट की जरूरत है। 1,000 फेलोशिप देकर इस क्षेत्र में विशेषज्ञता विकसित करनी होगी।

पैसे का हिसाब
100 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में स्पंज जोन जैसे सुधार की लागत लगभग 70 करोड़ रुपए है और रखरखाव में सालाना 2-3 करोड़ रुपए लगेंगे। तुलना के लिए मुंबई मेट्रो का एक दिन बंद होना 300 करोड़ रुपए का नुकसान है। प्लास्टिक सरचार्ज और ग्रीन बॉन्ड से अहमदाबाद ने 60 हेक्टेयर लैंडफिल खाली करके 200 करोड़ रुपए जुटाए। यानी भूली-बिसरी नालियों की मरम्मत खुद को महीनों में चुका देती है। आवश्यकता है बस किसी को इस आवश्यकता को पूरी तरह से अपनाने की।

नीति के तीन कदम
पहला, एक लाख करोड़ रुपए का ब्लू-ग्रीन सिटीज फंड बनाना होगा जो सीमेंट- मोर्टार नहीं बल्कि बारिश के रिसाव में कमी को बढ़ावा देगा। बारिस का पानी कुदरत की देन है, दंड नहीं । दूसरा, भवन परमिट के लिए फ्लड स्ट्रेस टैग लगाना होगा। भूकंप मानकों की तरह जल संसाधन बोर्ड की मंजूरी के बिना बेसमेंट की इजाजत न मिले। तीसरा, वर्षा जल प्रबंधन के खर्च को प्रोत्साहित करना होगा, प्रॉपर्टी टैक्स, GST से छूट जैसे कदम छोटे पर महत्वपूर्ण हैं।

नागरिकों की भूमिका क्लाउडबर्स्ट की लड़ाई नालियों में शुरू होती है लेकिन जीत डस्टबिन में होती है। अगर हम हर चॉकलेट रैपर सड़क पर फेंकेंगे तो लाखों-करोड़ों की नालियां भी एक घंटे में घुट जाएंगी। स्वच्छ भारत- सिर्फ होर्डिंग नहीं, नागरिक जीवन का एक अहम् हिस्सा होना चाहिए। इस लड़ाई को “मैं” से शुरू करना होगा।

आखिरी बात
डिजिटल इंडिया, यूनिकॉर्न कैपिटल और विकसित भारत के नारे तब तक तैरेंगे जब तक हमारी नालियां डूबने न दें। बादल अब खटखटाते नहीं, धड़धड़ाते हैं। इस हकीकत के बाद भी अगर हम नाली को बैक-एंड मानते रहे तो अगली हेडलाइन किसी सड़क नहीं, आपके ड्राइंग रूम की तस्वीर के साथ लिखी जाएगी।

पानी का दरिया रोकने का सबसे सस्ता तरीका है—उसे रास्ता देना। जल को जगह दीजिए, शहर सांस लेंगे। सक्षम भारत का सपना 2047 तभी साकार होगा जब हर गली-नाली 24×7 चालू रहे, बिना फोटो-ऑप, बिना बहाने। तभी बादल फटेंगे पर शहर नहीं।

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