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अरावली के अस्तित्व पर संकट: दिल्ली के अदृश्य प्रहरी की सुरक्षा में सेंध, शहर के हवा-पानी और भविष्य पर खतरा

December 21, 2025

नई दिल्ली. अरावली (Aravalli) के भविष्य पर 20 नवंबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) के फैसले के बाद संकट गहरा गया है। इस फैसले से आरावली का 91.3 फीसदी पहाड़ी क्षेत्र (mountainous areas) कानूनी सुरक्षा (legal protection) के दायरे से बाहर हो सकता है। पर्यावरण विशेषज्ञों का मानना है कि यह फैसला केवल भौगोलिक सीमा का बदलाव नहीं, बल्कि दिल्ली-एनसीआर को प्रदूषण, जल संकट और मरुस्थलीकरण की ओर धकेलने वाला कदम साबित हो सकता है। ऐसे में अरावली का विनाश सीधे तौर पर करोड़ों लोगों की सेहत और भविष्य से जुड़ा मुद्दा बन गया है।

पर्यावरण विशेषज्ञ संजय मिश्रा ने बताया कि अरावली के बिना थार की रेत दिल्ली तक पहुंच जाएगी, जिससे पहले से खराब वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) और गिरेगा। पहले ही कई ब्रेकेज हो चुके हैं, जहां से धूल दिल्ली में प्रवेश कर रही है। एक हेक्टेयर अरावली सालाना 20 लाख लीटर पानी रिचार्ज करती है। ऐसे में इसका विनाश दिल्ली-एनसीआर के जल संकट को और गहरा करेगा। उन्होंने दावा किया कि नए नियम से कम ऊंचाई वाली पहाड़ियां असुरक्षित हो जाएंगी, जिससे निर्माण सामग्री के लिए और खनन बढ़ेगा। उन्होंने कहा कि अगर पूरी शृंखला को संरक्षित नहीं किया गया तो दिल्ली-एनसीआर की जलवायु और स्वास्थ्य पर स्थायी क्षति होगी। यह सिर्फ पर्यावरण का संकट नहीं, बल्कि लाखों लोगों की जिंदगी का सवाल है।


दिल्ली की ग्रीन शील्ड
अरावली पर्वतमाला गुजरात से दिल्ली तक 692 किलोमीटर लंबी है, जो राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली से होकर गुजरती है। यह दक्षिण-पश्चिम मानसून को प्रभावित करती है, पूर्वी राजस्थान में वर्षा लाती है और पश्चिम से थार मरुस्थल के रेत-धूल के फैलाव को रोकती है। इसके तीन भाग हैं। 450 मीटर तक फैली दक्षिणी अरावली, 500-700 मीटर तक मध्य अरावली और दिल्ली के आसपास कम ऊंचाई वाली उत्तरी अरावली हैं। यहां रणथंबौर और सरिस्का जैसे टाइगर रिजर्व हैं जो जैव विविधता के हॉटस्पॉट हैं। अरावली दिल्ली-एनसीआर के लिए प्राकृतिक ग्रीन शील्ड का काम करती है, जो पीएम 2.5 कणों को अवशोषित करती है और धूल भरी आंधियों को रोकती है।

राजधानी की जैव विविधता का आधार
अरावली का दिल्ली में उत्तरी विस्तार दिल्ली रिज के रूप में जाना जाता है, जिसे राजधानी के ग्रीन लंग्स भी कहा जाता है। दिल्ली में अरावली की शुरुआत दक्षिण दिल्ली के तुगलकाबाद क्षेत्र से मानी जाती है, जहां असोला-भट्टी वन्यजीव अभयारण्य और भट्टी माइन्स स्थित हैं। यहां से यह उत्तर-पश्चिम दिशा में फैलते हुए वसंत कुंज, वसंत विहार, जेएनयू और महरौली क्षेत्र से गुजरती है। इसके बाद यह सेंट्रल रिज के रूप में धौला कुआं से सदर बाजार तक जाती है और अंत में नॉर्दर्न रिज के तौर पर दिल्ली विश्वविद्यालय क्षेत्र को पार करते हुए यमुना नदी के पश्चिमी किनारे वजीराबाद के पास समाप्त होती है। दिल्ली में दिल्ली रिज की कुल लंबाई करीब 35 किलोमीटर है और इसका क्षेत्रफल करीब 8,000 हेक्टेयर में फैला हुआ है। क्वार्टजाइट चट्टानों से बनी यह पर्वत शृंखला दिल्ली की जैव विविधता का महत्वपूर्ण आधार है और इसे पर्यावरण मंत्रालय, दिल्ली सरकार और सुप्रीम कोर्ट द्वारा इको-सेंसिटिव जोन के रूप में संरक्षित माना गया है।

क्यों खतरनाक है नई परिभाषा?
सुप्रीम कोर्ट ने 20 नवंबर, 2025 को पर्यावरण मंत्रालय की समिति की सिफारिश स्वीकार कर अरावली की नई परिभाषा तय की है। ऐसे में अब केवल वे भूमिरूप अरावली माने जाएंगे, जो आसपास की जमीन से 100 मीटर या अधिक ऊंचे हों। इसे समुद्र तल से नहीं माना जाएगा। दो पहाड़ियां 500 मीटर के दायरे में हों तो रेंज मानी जाएगी। पहले फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (एफएसआई) 3 डिग्री ढलान के आधार पर परिभाषा तय करता था। पर्यावरण विशेषज्ञ के अनुसार, खनन कार्य के लिए कथित सिस्टम की मिलीभगत से 100 मीटर या उससे ऊंची पहाड़ियों को भी 60 मीटर या 80 मीटर दिखाकर सरकार से अनुमति ले लेते हैं। उसके लिए ये पहाड़ी नापने के लिए अल्टीमीटर का सहारा लेते हैं, जबकि कई मौकों पर सरकार कह चुकी है कि पहाड़ की ऊंचाई अल्टीमीटर से नहीं नापी जा सकती है।

12,081 पहाड़ियों में से केवल 1,048 ही 100 मीटर से ऊपर
एफएसआई की आंतरिक रिपोर्ट के अनुसार, राजस्थान के 15 जिलों में 20 मीटर से ऊंची 12,081 पहाड़ियों में से केवल 1,048 (8.7 फीसदी) ही 100 मीटर से ऊंची हैं। इससे 90 फीसदी से अधिक क्षेत्र संरक्षण से बाहर हो जाएगा और इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर खनन और निर्माण की आशंका बढ़ जाएगी। 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने चारों राज्यों में खनन पर रोक लगाई थी और समिति गठित की। अब कोर्ट ने नई खनन लीज पर रोक लगाई है, लेकिन मौजूदा परियोजनाओं और सस्टेनेबल माइनिंग की योजना बनाने का निर्देश दिया है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह परिभाषा खनन माफिया और निर्माण कंपनियों को फायदा पहुंचाएगी, क्योंकि अरावली में तांबा, जस्ता, मार्बल जैसे खनिज प्रचुर हैं। इससे दिल्ली, गुरुग्राम, नोएडा जैसे शहरों में निर्माण सामग्री तो सस्ती मिलेगी, लेकिन पर्यावरणीय क्षति अपूरणीय होगी।

सेव अरावली अभियान सोशल मीडिया पर वायरल
सोशल मीडिया पर सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सोशल मीडिया पर सेव द अरावली के नाम से मुहिम चलाते हुए सरकार की नीति पर सवाल उठाए हैं। यूजर्स ने अरावली को लेकर प्रस्तावित नई परिभाषा पर आपत्ति जताई है। उन्होंने कहा कि अरावली को केवल ऊंचाई या तकनीकी मापदंडों से नहीं, बल्कि उसके पर्यावरणीय महत्व के आधार पर देखा जाना चाहिए। कई यूजर्स ने #सेवअरावली अभियान के समर्थन में अपनी सोशल मीडिया प्रोफाइल तस्वीर भी बदली और इसे नई परिभाषा के खिलाफ प्रतीकात्मक विरोध बताया।

लगभग 2.5 अरब से 541 मिलियन वर्ष पूर्व में बनी अरावली
अरावली पर्वत श्रृंखला दुनिया की सबसे प्राचीन फोल्ड माउंटेन रेंज में से एक है, जो मुख्य रूप से प्रोटेरोजोइक युग लगभग 2.5 अरब से 541 मिलियन वर्ष पूर्व में बनी। इसका निर्माण टेक्टोनिक प्लेट्स के टकराव और ओरोजेनी (पर्वत निर्माण) प्रक्रियाओं से हुआ। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) और अन्य वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार, यह भारतीय शील्ड का हिस्सा है, जो प्राचीन क्रेटॉन्स के टकराव से बना है। वहीं, लगभग 1.0-1.5 अरब साल पहले दिल्ली में मेसोप्रोटेरोजोइक युग के दौरान नया बेसिन बना, जिसमें दिल्ली सुपरग्रुप की चट्टानें जमा हुईं। इसके बाद पश्चिम में स्थित मारवार क्रेटॉन से टकराव हुआ, जिससे उत्तरी अरावली यानी दिल्ली रिज का निर्माण हुआ। इस चरण में समुद्र की परत यानी ओफियोलाइट भी शामिल हुई, जो उस समय समुद्री क्रस्ट के अवशेष थे।

अरावली पर्वत श्रृंखला का धार्मिक और पौराणिक इतिहास
राजस्थान पर्यटन विभाग, पुरातत्व सर्वेक्षण और शैक्षणिक अध्ययन के अनुसार, अरावली पर्वत श्रृंखला मुख्य रूप से भूवैज्ञानिक महत्व की है, लेकिन धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी यह समृद्ध है। यहां कई प्राचीन मंदिर, तीर्थस्थल और पवित्र वन (सेक्रेड ग्रोव्स) हैं, जो हिंदू, जैन और आदिवासी परंपराओं से जुड़े हैं। पौराणिक रूप से इसका सीधा उल्लेख प्रमुख ग्रंथों जैसे वेद या महाभारत में कम है, लेकिन कुछ मान्यताओं में रामायण से हनुमान की यात्रा का जुड़ाव बताया जाता है।

अरावली का आस्थागत पक्ष
दिलवाड़ा जैन मंदिर (माउंट आबू, राजस्थान)
चलेश्वर महादेव मंदिर (माउंट आबू)
अंबाजी मंदिर (गुजरात)

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