
नई दिल्ली । विपक्ष शासित राज्यों कर्नाटक, पंजाब(Punjab), केरल और तेलंगाना(Telangana) ने मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट(Supreme Court) में कई महत्वपूर्ण(Several important) दलीलें दीं। इन राज्यों का कहना है कि संविधान राष्ट्रपति और राज्यपाल को किसी भी विधेयक को रोकने का विवेकाधिकार नहीं देता, भले ही वह असंवैधानिक हो या फिर किसी केंद्रीय कानून से टकरा रहा हो। उन्होंने कहा कि कैबिनेट प्रणाली की सर्वोच्चता को बरकरार रखना जरूरी है और विधायिका द्वारा पारित विधेयक जनता की इच्छा का प्रतिबिंब होता है।
कर्नाटक की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल सुब्रमण्यम ने मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशीय संविधान पीठ के समक्ष कहा, “राज्यपाल को व्यापक विवेकाधिकार देना दोहरी सत्ता की स्थिति पैदा करेगा। न तो राष्ट्रपति और न ही राज्यपाल को किसी विधेयक पर वीटो का अधिकार दिया जा सकता है। वे हमेशा मंत्रिपरिषद की सलाह और सहायता से बंधे रहते हैं।”
किन मामलों में राज्यपाल कर सकते हैं स्वतंत्र कार्रवाई
गोपाल सुब्रमण्यम ने यह भी स्वीकार किया कि कुछ विशेष मामलों में राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह के बिना भी कार्रवाई कर सकते हैं। इनमें-
भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत मंत्रियों के खिलाफ अभियोजन की अनुमति देना,
विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के रूप में दायित्व निभाना,
धार्मिक बोर्डों के मुखिया के रूप में भूमिका शामिल है।
हालांकि, उन्होंने साफ किया कि किसी विधेयक पर ‘असहमति’ जताने का अधिकार केवल उसे एक बार पुनर्विचार के लिए विधायिका को लौटाने तक ही सीमित है। यदि विधायिका उसे दोबारा पारित कर देती है, चाहे संशोधन के साथ या बिना संशोधन, तो राज्यपाल के पास उसे मंजूरी देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता।
समयसीमा तय करने की जरूरत
सुब्रमण्यम ने तर्क दिया कि मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए विधेयकों पर निर्णय लेने की समयसीमा तय होना जरूरी है। उन्होंने याद दिलाया कि सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को तमिलनाडु मामले में अपने फैसले में यह स्पष्ट किया था कि यदि राष्ट्रपति या राज्यपाल अनिश्चितकाल तक निर्णय टालते रहें तो ऐसे में समयसीमा का निर्धारण राज्यों को न्याय पाने का अवसर देता है। सुनवाई के दौरान पीठ में शामिल जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी. एस. नरसिम्हा और जस्टिस ए. एस. चंद्रचूड़कर ने सुब्रमण्यम की दलीलों और अदालत में उनकी शालीनता की सराहना की।
पंजाब की ओर से दलील
पंजाब की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद दातार ने कहा कि राज्य विधानसभाएं ऐसे कानून बनाने के लिए भी स्वतंत्र हैं जो असंवैधानिक समझे जाएं, जैसे कि आरक्षण सीमा को 50% से ऊपर ले जाने वाले प्रावधान। उन्होंने कहा, “राज्यपाल के पास किसी विधेयक की संवैधानिकता तय करने का अधिकार नहीं है। यह काम केवल संवैधानिक न्यायालयों का है। राष्ट्रपति भी मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे होते हैं और वे किसी राज्य की जनता की इच्छा को निरस्त करने के लिए विधेयक को लंबित नहीं रख सकते।”
डीएमके की दलील पर रोक
सुनवाई के दौरान जब वरिष्ठ अधिवक्ता पी. विल्सन ने डीएमके की ओर से दलीलें देने की कोशिश की तो मुख्य न्यायाधीश ने उन्हें रोकते हुए कहा कि तमिलनाडु पहले ही इस मुद्दे पर विस्तार से अपनी दलीलें रख चुका है। यदि किसी राजनीतिक दल को सुनवाई का मौका दिया गया तो अन्य राजनीतिक दल भी हस्तक्षेप करने लगेंगे। मामले की सुनवाई संभवत: 10 सितंबर यानी आज समाप्त हो जाएगी।
इससे पहले तीन सितंबर को पश्चिम बंगाल सरकार ने उच्चतम न्यायालय से कहा था कि विधेयक के रूप में जनता की आकांक्षाओं को राज्यपालों और राष्ट्रपति की ‘‘मनमर्जी और इच्छाओं’’ के अधीन नहीं किया जा सकता, क्योंकि कार्यपालिका को विधायी प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने से रोका गया है।
तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) शासित राज्य सरकार ने कहा था कि राज्यपाल संप्रभु की इच्छा पर सवाल नहीं उठा सकते हैं और विधानसभा द्वारा पारित विधेयक की विधायी क्षमता की जांच करने के लिए आगे नहीं बढ़ सकते हैं, जो न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में आता है।
न्यायालय राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा भेजे गए 14 प्रश्नों की जांच कर रहा है, जिनमें यह भी शामिल है कि क्या संवैधानिक प्राधिकारी विधेयकों पर अनिश्चित काल तक स्वीकृति रोक सकते हैं और क्या न्यायालय अनिवार्य समय-सीमा लागू कर सकते हैं।
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