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बूचड़खानों पर रोकः बुनियादी सवाल?

July 25, 2021

– डॉ. वेदप्रताप वैदिक

उत्तराखंड की सरकार ने हरिद्वार में चल रहे बूचड़खानों पर रोक लगा दी थी। वहां के उच्च न्यायालय ने इस रोक को अवैध घोषित कर दिया है। उसका फैसला यह है कि जिन्होंने रोक की अर्जी लगाई थी, उनका तर्क गलत था लेकिन उनकी बात सही है। याचिकाकर्ताओं का तर्क यह था कि बूचड़खानों पर रोक लगने से हरिद्वार के मुसलमानों के अधिकारों का हनन होता है, क्योंकि वे मांसाहारी हैं। यह मामला अल्पसंख्यकों के साथ होनेवाले अन्याय का है।

अदालत ने इस तर्क को रद्द कर दिया है। उसने कहा है कि उत्तराखंड के 72 प्रतिशत लोग, जिनमें हिंदू, मुसलमान, सिख और ईसाई भी शामिल हैं, मांसाहारी हैं। इसलिए यह अल्पसंख्यकों का मामला ही नहीं है। यह मामला मानव अधिकार का है। हर व्यक्ति का अपना अधिकार है कि अपना खाना वह क्या खाएगा, यह वह खुद तय करे। अदालत या सरकार को क्या अधिकार है कि वह किन्हीं लोगों को मांसाहार या शाकाहार करने से मना करे।

अदालत का यह फैसला कानूनी हिसाब से तो बिल्कुल ठीक है लेकिन इस मुद्दे से जुड़े दो तर्क हैं, जिन पर गौर किया जा सकता है। एक तो हरिद्वार को हिंदुओं का अति पवित्र स्थल माना जाता है। इसलिए वहां बूचड़खाने बंद किए जाएं, यह मांग स्वाभाविक लगती है। यदि वहां मांस नहीं बिकेगा तो गाय और सूअर, भेड़, बकरी का भी नहीं बिकेगा। याने मुसलमानों को परेशानी होगी तो मांसाहारी हिंदुओं को भी परेशानी होगी। अर्थात यह कदम सांप्रदायिक नहीं है। दूसरी बात यह है कि इन व्यक्तिगत मामलों में कानूनी दखलंदाजी बिल्कुल गलत है लेकिन इस बुनियादी सवाल पर भी विचार किया जाना चाहिए कि क्या मांसाहार मनुष्यों के लिए स्वास्थ्यप्रद है? दुनिया के सभी वैज्ञानिकों ने माना है कि आदमी की आंत और उसके दांत मांसाहार के लिए बने ही नहीं हैं। अच्छे स्वास्थ्य और दीर्घायु के लिए शाकाहार ही सर्वोत्तम है। किसी भी धर्मग्रंथ- बाइबिल, कुरान, जिंदावस्ता, गुरुग्रंथ साहब, वेद और पुराण में यह नहीं लिखा है कि जो मांस नहीं खाएगा, वह घटिया यहूदी या घटिया ईसाई या घटिया मुसलमान या घटिया सिख या घटिया हिंदू कहलाएगा।

जहां तक कुर्बानी का सवाल है, असली कुर्बानी तो अपने प्रिय बेटों की होती है लेकिन पशुओं की फर्जी कुर्बानी करनेवालों के लिए यह जरूरी नहीं है कि वे कुर्बानी का मांस खाएं ही। मांसाहार विश्व की अर्थव्यवस्था और पर्यावरण की दृष्टि से भी बहुत हानिकर है। जो लोग अपनी खान-पान की परंपरा को भी तर्क और विज्ञान की तुला पर तोल सकते हैं, वे स्वतः अपने आप को मांसाहार से मुक्त करते जा रहे हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने स्तंभकार हैं।)

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