
नई दिल्ली (New Delhi) । भाजपा (BJP) के खिलाफ त्रिपुरा (Tripura) में साथ लड़े माकपा व कांग्रेस (CPM and Congress) गठबंधन का असर देश की व्यापक राजनीति खासकर केरल (Kerala) पर ज्यादा पड़ने के आसार नहीं हैं। केरल में मुख्य मुकाबला माकपा व कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन में होता रहा है। ऐसे में भाजपा वहां पर इन दोनों के साथ आने को लेकर अपने लिए अवसर बनाने की कोशिश कर सकती है।
हालांकि केरल में वैचारिक, राजनीतिक व सामाजिक रूप से भाजपा की मुख्य लड़ाई माकपा के साथ है। ऐसे में वहां पर कांग्रेस के कमजोर पड़ने से भी भाजपा को बड़ा लाभ मिलने की उम्मीद कम है।
वैचारिक रूप से भाजपा व वामपंथी दलों के साथ सीधा संघर्ष रहा है, जबकि कांग्रेस व वामपंथी दलों का संघर्ष वैचारिक से ज्यादा राजनीतिक रहा है। ऐसे में वामपंथी दलों के साथ कांग्रेस से ज्यादा संघर्ष भाजपा का रहता है। पश्चिम बंगाल व त्रिपुरा में वामपंथ के किले ढहने के बाद केरल का ऐसा दुर्ग कायम है, जहां भाजपा बहुत पीछे है। यहां पर भाजपा का अभी तक केवल एक बार एक विधानसभा सीट मिली है और लोकसभा में तो कभी खाता भी नहीं खुला है।
हालांकि, अब वह केरल में अपनी जड़े जमाने के लिए त्रिपुरा में साथ लड़े कांग्रेस व माकपा के मु्द्दे को हवा देगी। भाजपा ने इसकी शुरुआत भी कर दी है। पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के नतीजे आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इसके संकेत दिए हैं।
केरल के बीते विधानसभा चुनाव की बात करें तो 140 सदस्यीय विधानसभा में वामपंथी एलडीएफ को 99, कांग्रेस नेतृत्व वाले यूडीएफ को 41 सीटें मिली थी। यानी किसी और को कोई जगह नहीं। भाजपा को 11.30 फीसद वोट तो मिले, लेकिन सीट एक भी नहीं। उसके साथ जुड़े एनडीए को भी भाजपा समेत 12.50 फीसदी वोट ही मिले थे।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है अगर भाजपा केरल में माकपा व कांग्रेस के गठजोड़ को जनता में बैठाने में थोड़ी भी सफल होती है तो इसका नुकसान कांग्रेस को ज्यादा हो सकता है। भाजपा को इसका लाभ तभी होगा जबकि माकपा के नेतृत्व वाला वामपंथी गठबंधन कमजोर पड़े। दरअसल केरल की सामाजिक राजनीति में अधिकांश हिंदू समुदाय माकपा का समर्थक माना जाता है। यही वजह है कि आरएसएस की व्यापक सक्रियता के बावजूद वहां पर भाजपा की जमीन नहीं बन पाई है।
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