
नई दिल्ली । बिहार (Bihar) में मतदाता सूची (Voter List) के स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) को लेकर चुनाव आयोग (Election Commission) लगातार सुर्खियों में है। 24 जून को जारी आदेश से शुरू हुई इस कवायद को लेकर आयोग ने शुरुआत में कड़े निर्देश दिए थे, लेकिन जमीनी हकीकत और सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) की सख्त निगरानी के चलते आयोग को धीरे-धीरे कई बदलाव करने पड़े। आइए जानते हैं।
दस्तावेज जमा करने की समयसीमा में ढील
24 जून को जारी आदेश में चुनाव आयोग ने साफ कहा था कि हर मतदाता को गणना फॉर्म (EF) भरकर 25 जुलाई तक जमा करना होगा और इसके साथ 11 निर्धारित दस्तावेजों में से कोई एक पहचान/पात्रता प्रमाण देना होगा। लेकिन 7 जुलाई तक मिली रिपोर्टों में दस्तावेज जुटाने में कठिनाई सामने आई। इसके बाद बिहार की चुनाव मशीनरी ने विज्ञापनों में कहा कि यदि दस्तावेज तुरंत उपलब्ध नहीं हैं, तो फॉर्म जमा किया जा सकता है और प्रमाण बाद के चरणों यानी वेरिफिकेशन या क्लेम्स-ऑब्जेक्शन में जोड़े जा सकते हैं।
12 जुलाई को आयोग ने प्रेस बयान जारी कर कहा कि दस्तावेज “प्राथमिकता से” फॉर्म के साथ दिए जाएं, लेकिन यदि किसी को समय चाहिए तो वे 30 अगस्त तक, यानी दावे और आपत्तियां दर्ज करने की अंतिम तारीख तक दस्तावेज अलग से जमा कर सकते हैं। इस बदलाव से अधिकतर मतदाता 1 अगस्त की ड्राफ्ट मतदाता सूची में शामिल हो गए, भले ही उन्होंने दस्तावेज न दिए हों। 27 जुलाई को आयोग ने बताया कि 91.69% मतदाताओं ने फॉर्म जमा किए, परंतु यह स्पष्ट नहीं हुआ कि कितनों ने बिना दस्तावेजों के आवेदन किया।
65 लाख नाम हटने पर विवाद
27 जुलाई को गणना चरण पूरा होने पर, चुनाव आयोग ने बताया कि 91.69% मतदाताओं ने ईएफ जमा किए। हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि कितने मतदाताओं ने बिना आवश्यक दस्तावेजों के फॉर्म जमा किए। इसी बयान में 65 लाख मतदाताओं के नाम मसौदा मतदाता सूची से हटाए जाने की बात सामने आई, जिसने व्यापक राजनीतिक बहस को जन्म दिया और सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर तीखी चर्चा हुई। डेटा की अनुपलब्धता ने विवाद को और बढ़ा दिया। सुप्रीम कोर्ट ने 14 अगस्त को आदेश दिया कि आयोग बूथ-वार उन मतदाताओं की सूची वेबसाइट पर डाले जिनका नाम पहले था लेकिन 1 अगस्त की सूची से हट गया। साथ ही यह भी कहा गया कि हटाए गए हर नाम के पीछे कारण, EPIC नंबर के साथ, सर्चेबल फॉर्मेट में सार्वजनिक किए जाएं।
आधार पर आयोग की नरमी
आधार कार्ड आयोग की 11 निर्धारित पहचान-पत्रों की सूची में शामिल नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने भी माना कि आधार नागरिकता का अंतिम प्रमाण नहीं हो सकता। इसके बावजूद कोर्ट ने कई सुनवाईयों में आयोग से आग्रह किया कि जिन 65 लाख लोगों के नाम हटे हैं, उनके पुनः दावे पर विचार करते समय आधार को एक सहायक दस्तावेज के रूप में देखा जाए। पहले इसके खिलाफ रहे चुनाव आयोग ने अब कहा है कि वह इस सुझाव पर विचार करेगा।
दावों-आपत्तियों की तारीख पर नया मोड़
आयोग के 24 जून के आदेश के मुताबिक 1 अगस्त से 1 सितंबर का समय दावों और आपत्तियों के लिए तय था। 14 अगस्त की प्रेस कॉन्फ्रेंस में मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) ज्ञानेश कुमार ने राजनीतिक दलों से अपील की कि वे सूची की शुद्धि में सहयोग करें और 1 सितंबर तक दावे-आपत्तियां दर्ज करें। उन्होंने कहा कि इस तारीख के बाद कोई शिकायत स्वीकार नहीं की जाएगी।
लेकिन, 1 सितंबर की सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई में आयोग ने सहमति दी कि 1 सितंबर की समय सीमा के बाद भी दावे, आपत्तियां और सुधार स्वीकार किए जा सकते हैं और इन्हें अंतिम मतदाता सूची तैयार होने के बाद भी माना जाएगा। आयोग ने कहा कि यह प्रक्रिया नामांकन की अंतिम तारीख तक जारी रहेगी। आयोग के सूत्रों ने इसे ज्यादा तवज्जो नहीं दी और 24 जून के निर्देशों के पैरा 12 का हवाला दिया, जिसमें सभी चुनावों में “निरंतर अद्यतन” के लिए इस तरह के प्रावधान का उल्लेख है। हालांकि, मौजूदा एसआईआर सामान्य या गहन संशोधन से अलग है, और सुप्रीम कोर्ट की निरंतर निगरानी के बीच आयोग ने धीरे-धीरे अधिक लचीलापन दिखाया है।
स्पष्ट है कि बिहार की SIR प्रक्रिया में चुनाव आयोग ने शुरू में सख्ती दिखाई, लेकिन दस्तावेजों में ढील, आधार पर नरमी और दावों की समयसीमा बढ़ाने जैसे कदम उसकी लचीलापन दिखाते हैं। सुप्रीम कोर्ट की सतत निगरानी और राजनीतिक दलों की आपत्तियों के बीच आयोग ने धीरे-धीरे अपनी प्रारंभिक योजना में बदलाव किया है।
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