
-असरार अंसारी
पूर्वोत्तर में सक्रिय एवं प्रमुख विद्रोही संगठन यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) स्वाधीन (स्व) इन दिनों अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है। राज्य के कई जिलों से उल्फा (स्व) में युवाओं का शामिल होना इस बात का संकेत है कि संगठन के पास कैडरों की संख्या काफी सीमित है। उल्फा (स्व) गुपचुप तरीके से नए युवाओं को अपनी ओर आकर्षित कर संगठन को फिर से मजबूत करना चाहता है। उल्फा की स्थापना 7 अप्रैल, 1979 में ऊपरी असम के रंग घर में हुई थी। 1990 से इसका संचालन शुरू हुआ जो अब तक जारी है। हालांकि, पिछले दिनों उल्फा का एक धड़ा केंद्र सरकार के साथ शांति वार्ता में शामिल हो गया तो उल्फा के सेनाध्यक्ष परेश बरुवा ने संगठन का नाम बदलते हुए उल्फा (स्वाधीन) रखा लिया।
उल्फा (स्व) सेनाध्यक्ष परेश बरुवा जंगल में रहकर अपने संगठन में नए युवाओं को भर्ती कर संगठन को मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं। उनके करीबी सहयोगी और उल्फा के अध्यक्ष अरविंद राजखोवा, अनूप चेतिया, राजू बरुवा, शशधर चौधरी, चित्रवन हाजारिका सहित अन्य शीर्ष नेता केंद्र सरकार के साथ शांति वार्ता कर रहे हैं। सुरक्षा एजेंसियों का मानना है कि अलग असम का सपना देखने वाले परेश बरुवा के पास काफी कम संख्या में कैडर बचे हैं, जिसकी वजह से इन दिनों गुपचुप तरीके से राज्य के विभिन्न जिलों से युवाओं को उल्फा (स्व) में शामिल होने के लिए लालच दिया जा रहा है। माना जा रहा है कि उल्फा (स्व) प्रमुख बरुवा राज्य के मुख्यमंत्री डॉ. हिमंत बिस्व सरमा के शासनकाल में ही मुख्यधारा में लौट सकते हैं, क्योंकि इसका संकेत राज्य सरकार की ओर से भी कई बार मिल चुका है।
ऐसे में उल्फा (स्व) प्रमुख अगर शांति वार्ता या मुख्यधारा में लौटते हैं तो उनको राज्यवासियों को दिखाना होगा कि वे ताकतवर हैं। अगर वे अपनी ताकत को नहीं दिखा पाते हैं तो राजनीतिक रूप से उनको जितना फायदा होना चाहिए वह नहीं होगा। पूर्वोत्तर के कई प्रतिबंधित संगठन हथियार डालकर सरकार के साथ शांति वार्ता कर रहे हैं। अब तक जितने भी संगठनों ने हथियार डाला या शांति वार्ता की मेज पर आए, उन सभी ने अपनी ताकत राज्यवासियों के सामने दिखाई है। ऐसे में माना जा रहा है कि कैडरों की कम संख्या परेश बरुवा को जरूर परेशान कर रही है। यह उनके लिए काफी चिंता का विषय है। अगर इस स्थिति में परेश बरुवा शांति वार्ता की मेज पर आते हैं तो स्थानीय लोगों से अपने नेरेटिव का बचाव भी नहीं कर पाएंगे। इसलिए उल्फा (स्व) इन दिनों नए कैडरों की भर्ती में लगा हुआ है।
माना जा रहा है कि जो लोग उल्फा (स्व) की ओर आकर्षित होकर जा रहे हैं उन्हें संगठन की ओर से काफी लालच दिया रहा जा रहा है। दावा किया जा रहा है कि संगठन की ओर से युवाओं को यह बताया जा रहा है कि आने वाले समय में अगर उल्फा (स्व) शांति वार्ता में भाग लेता है तो सरकार की ओर से कैडरों को काफी सुविधाएं मिलेंगी। वहीं उल्फा (स्व) का समाचार संग्रह करने वाले पत्रकारों की माने तो जिस तरह युवा आकर्षित होकर उल्फा (स्व) में जा रहे हैं वह चिंता का विषय है। हाल के दिनों में तमाम युवा उल्फा (स्व) में शामिल हुए हैं।
उल्फा (स्व) में युवाओं के शामिल होने के पीछे कई वजहें हैं, लेकिन सबसे मजबूत वजह यह साफ तौर पर दिखाई दे रही है कि कभी भी उल्फा (स्व) शांति वार्ता में शामिल हो सकता है। संभवतः अपनी शक्ति को दिखाने के लिए ही लालच देकर युवाओं को संगठन में शामिल कराया जा रहा है। इस अवधारणा को इसलिए बल मिल रहा है, क्योंकि हाल के दिनों में कई प्रतिबंधित संगठन शांति वार्ता में शामिल होने के दौरान कैडरों के बल पर अपनी ताकत को दिखा चुके हैं। उल्फा (स्व) में नए युवाओं के शामिल होने पर इस बात का भी डर पैदा हो रहा है कि परेश बरुवा के नेतृत्व में पुराने कैडर नए कैडरों से स्थानीय स्थिति का पता लगाकर एक बार फिर से उगाही, अपहरण, लूट, हत्या आदि की घटनाओं को अंजाम दे सकते हैं। हालांकि, परेश बरुवा और मुख्यमंत्री के हालिया बयानों पर गौर करें तो इस बात की आशंका थोड़ी कम नजर आती है। बावजूद, पक्के तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता है।
उल्फा पहले ही दो धड़ों में बंट चुका है। जबकि, पूर्व की सरकारें विभिन्न सुविधाओं को मुहैया कराते हुए उल्फा के काफी कैडरों को मुख्यधारा में शामिल कर चुकी हैं, जो राज्य में सल्फा के नाम से जाने जाते हैं। उल्फा के ज्यादातर शीर्ष नेता इन दिनों सरकार के साथ शांति वार्ता कर रहे हैं। उल्फा के ज्यादातर शीर्ष नेता चाहते हैं कि परेश बरुवा भी शांति वार्ता में शामिल हों। वे बार-बार परेश बरुवा का शांति वार्ता में शामिल होने का आह्वान भी कर चुके हैं। ऐसे में उल्फा में युवाओं के फिर से शामिल होने के पीछे की मुख्य वजह क्या है, यह अभी तक पूरी तरह से साफ नहीं हुआ है। हाल के दिनों में उल्फा की गतिविधियां भी पूरी तरह से सीमित हो गई हैं। बावजूद नए कैडरों का संगठन में शामिल होना एक नये खतरे की घंटी है या कुछ और कहना कठिन है।
हिन्दुस्थान समाचार/मुकुंद
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