
नई दिल्ली । ‘जवान’, ‘एनिमल’, ‘पठान’, ‘गदर 2’ और ‘पुष्पा 2’ जैसी एक्शन फिल्में (Movies) दर्शकों को सिनेमाघरों (Cinema Hall) तक खींच कर वापस लाने में सफल तो हो रही हैं लेकिन अब भी, दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने वाले देश भारत के सिनेमा में विदेशी निवेश (foreign investment) न के बराबर है। इसकी बड़ी वजह है भारतीय सिनेमा (Indian Cinema) में पारदर्शिता का अभाव, आंकड़ों की हेराफेरी और झूठ के सहारे कारोबार को चमकाते रहने की फितरत। हॉलीवुड के मेजर्स (पांच सबसे बड़े स्टूडियो) में शामिल वार्नर ब्रदर्स डिस्कवरी की भारतीय शाखा के प्रबंध निदेशक डेंजिल डायस से मीडिया ने ये लंबी बातचीत की।
क्या भारत में हॉलीवुड फिल्मों का आपसी मुकाबला भी होता रहा है? इस बारे में आपका दृष्टिकोण क्या है?
एक अध्ययन के मुताबिक एक औसत हिंदी भाषी भारतीय दर्शक साल में औसतन सात फिल्में सिनेमाघर में जाकर देखता है। इनमें से तीन से चार फिल्में वह हिंदी की देखता है, एक दक्षिण भारतीय फिल्म देखता है और दो से तीन फिल्में हॉलीवुड की देखता है। यानी कि एक औसत भारतीय दर्शक साल में हॉलीवुड की तीन अधिकतम फिल्में सिनेमाघरों में जाकर देखता है। जाहिर सी बात है कि मुकाबला यहां काफी कड़ा है। लोग ‘गॉडजिला’ या ‘कॉन्ग द न्यू एम्पायर’ की बजाय ‘डेडपूल एंड वूल्वरिन’ देखने आते हैं।
और, एनिमेशन व हॉरर?
एनीमेशन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक बहुत ही लोकप्रिय सिनेमा शैली है, लेकिन भारत में इसके दर्शक अब तक विकसित क्यों नहीं हो पाए, ये एक अध्ययन का विषय हो सकता है। इस साल की ही बात करें तो ‘इनसाइड आउट 2’ ने दुनिया भर में रिकॉर्ड कारोबार किया लेकिन भारत में इसका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। ‘कुंग फू पांडा 4’ का कारोबार इससे बेहतर रहा। दैत्याकार जीवों वाली फिल्में, डरावनी फिल्मों का एक अलग दर्शक वर्ग है भारत में और ये आगे बढ़ता भी रहेगा, लेकिन मुझे लगता है कि अगर दर्शकों को सही तरीके से पोषित किया जाए तो एनीमेशन में बहुत संभावनाएं हैं। कार्टून सिर्फ घर पर देखने वाली श्रेणी है, हमें इस मानसिकता को तोड़ना होगा।
एक मानसिकता ये भी है कि हिंदुस्तान में सिनेमाघरों में फिल्में देखने अधिकतर पुरुष ही आते हैं?
हां, ये सच है कि महिला दर्शकों का एक बड़ा वर्ग है जो बड़े पर्दे पर फिल्में देखना चाहता है। लेकिन, भारत में अब भी सिनेमाघर पुरुष प्रधान हैं। हम सब इसे बदलना चाहते हैं। बहुत सारी फिल्में ऐसी हैं जिन्हें देख महिलाएं भावुक भी होती हैं और उनमें खुद का प्रतिबिंब भी पाती हैं। बड़े शहरों में तो फिर भी इसमें सुधार हो रहा है लेकिन छोटे शहरों और कस्बों में अभी इसमें महत्वपूर्ण बदलाव की जरूरत है।
सिनेमा में स्थानीय संस्कृतियों का समावेश भी काफी असर डाल रहा है, आपका क्या मानना है?
कुछ चीजें सिनेमा में होती हैं जिसे हम यूनिवर्सल अपील कहते हैं। ये भावनाएं पूरी दुनिया में एक जैसी ही होती हैं, लेकिन हां, स्थानीय बातें, स्थानीय संस्कृतियां और स्थानीय लोककथाएं सिनेमा पर खासा असर डाल रही हैं। अगर कोई लोककथा वैश्विक पसंद की बन सकती है, तो इससे अच्छा और क्या ही हो सकता है। ऐसी फिल्मों को ही दूसरी भाषाओं में डब करके रिलीज किया जाता है। अगर हमारी भी कोई फिल्म तमिल, तेलुगु, कन्नड़ या मलयालम दर्शकों की भावनाओं को पोषित नहीं करती है तो उसे हम इन स्थानीय भाषाओं में डब नहीं करते हैं, जैसे कि जोकर: फोली ए ड्यूक्स।
सिनेमा के कारोबार पर फिल्म के सिनेमाघरों से ओटीटी पर आने के बीच का अंतराल भी मायने रखता है?
हिंदी फिल्मों के लिए ये अंतराल अभी आठ सप्ताह का है, दक्षिण भारतीय फिल्मों के लिए ये चार सप्ताह तक हो जाता है। आप ध्यान देंगे तो पाएंगे कि हॉलीवुड फिल्में 12 सप्ताह या कभी-कभी 16 सप्ताह बाद ही ओटीटी पर आती हैं। ऐसा इसलिए भी होता है कि इनके मेकर्स को अपने सिनेमा पर भरोसा होता है और वह सिनेमाघरों में टिके रहने पर यकीन रखते हैं। ध्यान ये भी रखना चाहिए कि हमारी सबसे ज्यादा कमाने वाली 20 फिल्में कुल कारोबार मे कितना योगदान दे रही हैं?
डाटा किसी भी उद्योग के विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। अभी तो ओटीटी भी बॉक्स ऑफिस के आंकड़ों के हिसाब से ही भुगतान कर रही हैं, तो ऐसे में आपको लगता है कि भारत में ये काम ईमानदारी से हो रहा है?
मुझे कहना तो नहीं चाहिए क्योंकि मैं भी इस उद्योग का हिस्सा हूं लेकिन आंकड़ों के मामले में हमें बहुत ईमानदारी की जरूरत है। अखबारों में, मीडिया में छपने वाले बॉक्स ऑफिस आंकड़े फर्जी होते हैं, ये बात अब सामने आने लगी है। इसीलिए, ओटीटी अब प्रामाणिक आंकड़ें मांगने लगे हैं। भारत में कम से कम 20 भाषाओं में सिने उद्योग काम कर रहा है और अच्छा कर रहा है, लेकिन अगर आंकड़े ही पारदर्शी नहीं होंगे तो हम सही फैसले नहीं ले पाएंगे। हमारे पास पारदर्शी डाटा ही नहीं हैं। मेरे पास भी जो आंकड़े आते हैं, मुझे नहीं पता कि वे कितना प्रामाणिक हैं। हॉलीवुड में इसके लिए बाकायदा एक सिस्टम बना हुआ है जहां एक थर्ड पार्टी इन आंकड़ों को स्वतंत्र रूप से सत्यापित करती है।
भारत में एक एजेंसी सैकनिल्क के आंकड़े काफी लोकप्रिय हो रहे हैं, इसके बारे में आपका क्या कहना है?
सैकनिल्क क्या है? यह एक प्रोग्राम है जो बॉट्स के जरिये काम कर रहा है। ये टिकट बुक करने वाली वेबसाइट्स के भीतर तक पहुंच चुका है और वहां से जानकारी हासिल कर रहा है। लेकिन, वास्तविक डाटा वह भी नहीं दे रहा है। हां, ये कुछ नहीं होने से बेहतर है और असली डाटा के सबसे करीब है। मेरे अपने अनुभव के आधार पर इसके और वास्तविक डाटा के बीच 10 से 15 फीसदी तक का अंतर हो सकता है, वह भी बड़ी फिल्मों के लिए, छोटी फिल्मों के मामले में ये अंतर 40 से 45 फीसदी भी हो सकता है।
और, वार्नर ब्रदर्स डिस्कवरी क्या भारत में भी फिल्म निर्माण को अपनी प्राथमिकताओं में रख रहा है?
हम अवसर तलाश रहे हैं। इनका अध्ययन कर रहे हैं। पहले चरण में हम कुछ नया करने की बजाय अपनी ही कहानियों को, यहां की भाषाओं में फिर से बनाने की योजना पर काम कर रहे हैं। हमारे पास 40 हजार से अधिक फिल्मों के बौद्धिक संपदा अधिकार हैं। हम इस लाइब्रेरी से चुनिंदा फिल्में उठा सकते हैं और इसे भारतीय दर्शकों के लिए बना सकते हैं। जैसे एटली ने अपनी ही फिल्म ‘थेरी’ को हिंदी के लिए ‘बेबी जॉन’ के नाम से बनाया है, हम भी ऐसा कर सकते हैं। किसी भी देश के कारोबार में हिस्सेदारी के लिए स्थानीय होना जरूरी है। हम भी इसके लिए कोशिश कर रहे हैं।
वार्नर ब्रदर्स डिस्कवरी की पहली हिंदी फिल्म कब शुरू होने की उम्मीद हम कर सकते हैं?
हम अपनी बौद्धिक संपदा वाली फिल्मों में से कुछ ऐसी कहानियों की सूची बनाने पर काम कर रहे हैं, जिनके रीमेक हम भारतीय भाषाओं में बना सकते हैं। हमने इनके लिए स्थानीय रचनात्मक भागीदार तलाशे हैं और हमारी कुछ फिल्में विकास के शुरूआती चरण में हैं। एक फिल्म जिसका कि एलान हम पहले ही कर चुके हैं, वह है ‘इंटर्न’। दीपिका पादुकोण अपने मातृत्व अवकाश को पूरा करने के तुरंत बाद इस फिल्म पर काम शुरू कर सकती हैं, लेकिन फिल्म में अमिताभ बच्चन भी हैं और हमें दोनों की तारीखों का साम्य भी बिठाना होगा।
और, एक आखिरी सवाल। भारत में बार-बार सिनेमाघरों की संख्या कम होने का मुद्दा उठता रहा है। आपको लगता है कि भारतीय फिल्में इसलिए नहीं चलतीं कि उनको रिलीज करने के लिए उचित संख्या में सिनेमाघर नहीं हैं?
मेरे हिसाब से इनकी संख्या आठ हजार के करीब है। लेकिन, इनमें से कितने सिनेमाघर हैं जो सौ फीसदी क्षमता के साथ चल रहे हैं। भारत में सिनेमाघरों तक आने वाले दर्शक इन सिनेमाघरों को औसतन 20 फीसदी क्षमता तक ही भर पाते हैं। तो, जरूरत ज्यादा सिनेमाघरों की नहीं बल्कि ज्यादा दर्शकों को इन सिनेमाघरों तक लाने की है। हां, नए सिनेमाघरों को बनाने में राज्य सरकारों को मदद करनी चाहिए। उत्तर प्रदेश सरकार इस दिशा में अच्छा काम कर रही है, इसे दूसरे राज्यों में भी लागू किया जा सकता है।
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