
जबलपुर। जबलपुर में कांग्रेस के भीतर संगठन सृजन अभियान अब केवल कागजी दावों और अपनों को उपकृत करने का जरिया बनकर रह गया है। कांग्रेस के दिग्गज राहुल गांधी का स्पष्ट निर्देश था कि कांग्रेस के ढांचे को मजबूत करने के लिए निचले स्तर के कार्यकर्ताओं की पसंद और उनकी सक्रियता को आधार बनाया जाए। लेकिन जबलपुर की नियुक्तियों ने यह साबित कर दिया कि संगठन के पदों पर लोकतंत्र नहीं बल्कि वंशवादऔर दरबारी संस्कृति हावी है। पर्यवेक्षकों और स्थानीय क्षत्रपों ने मिलकर निष्पक्ष चयन प्रक्रिया का गला घोंट दिया है।
ब्लॉक अध्यक्ष से लेकर जिला स्तर तक के पदों पर जिस तरह से नेताओं के भाई-भतीजों और रिश्तेदारों की फौज खड़ी की गई है, उसने संगठन को एक निजी लिमिटेड कंपनी में बदल दिया है। जो कार्यकर्ता सालों से धूप में पसीना बहा रहे थे, उन्हें यह कहकर दरकिनार कर दिया गया कि वे किसी खास गुट के नहीं हैं। इस भाई-भतीजावाद ने राहुल गांधी की उस योजना की हवा निकाल दी है, जिसका मकसद पार्टी में नई जान फूंकना था। अगले कुछ दिनों में कार्यकर्ताओं का आक्रोश सामने आएगा।
जमीनी कार्यकर्ताओं में नाराजगी और गुस्सा
जबलपुर कांग्रेस में नियुक्तियों का आधार कर्म नहीं बल्कि संपर्क बन गया है। जो लोग कभी आंदोलन की अग्रिम पंक्ति में नहीं दिखे, उन्हें नेताओं की पसंद के आधार पर सीधे कमान सौंप दी गई। यह जमीनी कार्यकर्ताओं की घोर उपेक्षा है, जो विचारधारा के लिए सड़कों पर लड़ते हैं। जब नेतृत्व चुनने की बारी आई, तो उनकी राय लेना तो दूर, उन्हें प्रक्रिया से ही बाहर कर दिया गया। जवाबदार नेताओं ने अपनी कुर्सी सुरक्षित रखने के लिए संगठन को मजबूत करने के बजाय उसे कमजोर करने का आत्मघाती कदम उठाया है। संगठन सृजन के नाम पर जो बंदरबांट हुई है, उसने पार्टी की साख को भारी नुकसान पहुँचाया है। यदि कार्यकर्ताओं के स्वाभिमान को इसी तरह कुचला गया और नियुक्तियों में पारदर्शिता नहीं लाई गई, तो कांग्रेस को आगामी चुनौतियों में इसका भारी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। राहुल गांधी के अभियान को पलीता लगाने वाले नेता वास्तव में पार्टी को अंदर से खोखला कर रहे हैं।
दिल्ली का मौन… क्या ये सहमति है
जबलपुर कांग्रेस में संगठन के नाम पर परिवारवाद का जो तमाशा चल रहा है, उसने कार्यकर्ताओं के विश्वास को छलनी कर दिया है। राहुल गांधी जब पारदर्शी राजनीति की बात करते हैं, तब उन्हीं के अभियान को स्थानीय नेता अपने स्वार्थ की भेंट चढ़ा देते हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या दिल्ली तक यह शोर नहीं पहुँच रहा, या जानबूझकर आँखों पर पट्टी बाँध ली गई है? यह चुप्पी उन हज़ारों कार्यकर्ताओं का अपमान है जो दफ्तरों में नहीं, सड़कों पर लड़ते हैं। अगर आलाकमान इसी तरह खामोश रहा, तो संगठन सृजन केवल एक ढोंग बनकर रह जाएगा।

©2025 Agnibaan , All Rights Reserved