
नई दिल्ली । केंद्र शासित प्रदेश(Union Territories) जम्मू-कश्मीर (Jammu and Kashmir)में इन दिनों 94 साल पुरानी घटना को लेकर राजनीतिक घमासान (Political turmoil)छिड़ा हुआ है। बुधवार को जम्मू कश्मीर विधानसभा में 13 जुलाई 1931 के ‘शहीदों’ पर नेता प्रतिपक्ष की ‘‘अपमानजनक टिप्पणी’’ को सदन की कार्यवाही से हटाने की घोषणा किए जाने के बाद भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सभी 28 सदस्य सदन से वाकआउट कर गए। भाजपा नेता और नेता प्रतिपक्ष सुनील शर्मा ने 1931 के ‘‘शहीदों’’ पर यह टिप्पणी उस दौरान की जब पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के विधायक वहीदुर्रहमान पारा ने 13 जुलाई को भी सार्वजनिक अवकाश बहाल करने की मांग की थी। बता दें कि शेख अब्दुल्ला की जयंती के अवसर पर पांच दिसंबर के सार्वजनिक अवकाश के साथ-साथ इस अवकाश को भी 2019 में अनुच्छेद 370 को निरस्त किए जाने के बाद, उपराज्यपाल प्रशासन ने रद्द कर दिया था। अब इसकी दोबारा मांग हो रही है।
1931 की घटना: क्या हुआ था?
1931 में जम्मू-कश्मीर एक रियासत था, जिस पर डोगरा शासक महाराजा हरि सिंह का शासन था। उस दौर में मुस्लिम बहुसंख्यक, शासकीय उत्पीड़न और सामाजिक-आर्थिक अन्याय से त्रस्त थे। महाराजा के शासन ने कथित तौर पर धार्मिक स्वतंत्रता पर कई पाबंदियां लगा रखी थीं, जिसमें मस्जिदों से अजान देने पर रोक प्रमुख थी। इसी के खिलाफ आवाज उठाने के लिए एक युवा कश्मीरी, अब्दुल कादिर, सामने आया। अब्दुल कादिर ने डोगरा शासन के खिलाफ भड़काऊ भाषण दिया, जिसके चलते उसे गिरफ्तार कर लिया गया और देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया।
13 जुलाई 1931 को श्रीनगर के सेंट्रल जेल में अब्दुल कादिर की सुनवाई के दौरान हजारों कश्मीरी जमा हो गए। वे अपने नेता के समर्थन में नारे लगा रहे थे। बताया जाता कि भीड़ बेकाबू होती जा रही थी। डोगरा गवर्नर रायजादा त्रिलोकी चंद ने स्थिति पर नियंत्रण करने के लिए सैनिकों को गोली चलाने का आदेश दे दिया। इस घटना में पूरे 22 लोग मारे गए। इसने कश्मीर में आक्रोश की आग भड़का दी। मृतकों को श्रीनगर के महाराजगंज इलाके में सड़कों पर ले जाया गया और विरोध प्रदर्शन तेज हो गए।
इस घटना ने शेख मोहम्मद अब्दुल्ला जैसे नेताओं को उभारा, जिन्होंने कश्मीरी जनता के अधिकारों के लिए संघर्ष को संगठित किया। इसे कश्मीर में डोगरा शासन के खिलाफ पहला बड़ा जनआंदोलन माना जाता है। हर साल 13 जुलाई को “कश्मीर शहीद दिवस” के रूप में मनाया जाता है, जिसमें मुसलमान इन 22 लोगों की कुर्बानी को याद करते हैं।
94 साल बाद विधानसभा में बवाल
मार्च 2025 में जम्मू-कश्मीर विधानसभा में इस घटना की गूंज फिर सुनाई दी, लेकिन इस बार यह सम्मान की बजाय विवाद का कारण बनी। पीडीपी नेता वहीद पारा ने अपने भाषण में 1931 की घटना का जिक्र किया और इसे कश्मीरी पहचान और संघर्ष का प्रतीक बताया। लेकिन विपक्ष के नेता सुनील शर्मा (बीजेपी) ने इसका कड़ा विरोध किया। शर्मा ने कहा, “13 जुलाई 1931 को श्रीनगर में मारे गए लोग शहीद नहीं, बल्कि गद्दार थे।” इस बयान ने सदन में हंगामा खड़ा कर दिया। विपक्ष ने स्पीकर पर पक्षपात का आरोप लगाया, जबकि सत्तापक्ष ने इसे इतिहास का अपमान करार दिया।
सुनील शर्मा ने बाद में आजतक से बातचीत में अपने बयान का बचाव करते हुए कहा कि उनकी नजर में यह घटना विद्रोह का परिणाम थी, न कि शहादत का उदाहरण। दूसरी ओर, वहीद पारा और अन्य नेताओं ने इसे कश्मीरी अस्मिता पर हमला बताया। सोशल मीडिया पर भी यह मुद्दा छाया रहा, जहां कुछ ने शर्मा के बयान को असंवेदनशील ठहराया, तो कुछ ने इसे ऐतिहासिक तथ्यों की अलग व्याख्या के रूप में देखा।
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