
नई दिल्ली । सन् 1971 में भारत (India) ने कई मोर्चों पर एक साथ पाकिस्तान (Pakistan) को धूल चटाई थी। बांग्लादेश आजाद हुआ था और पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गए थे। आजादी के बाद भारत के सैन्य इतिहास की यह सबसे बड़ी उपलब्धि है। मगर शौर्य की यह यशगाथा जिनको याद है, उन्हें यह भी याद होगा कि उसी दौरान भारत सरकार ने एक शरणार्थी शुल्क लगाने का एलान किया था, जिसे ‘बांग्लादेश सरचार्ज’ या ‘बांग्लादेश टैक्स’ के नाम से जाना जाता है। इसे बांग्लादेशी शरणार्थियों के देश में आने के कारण लगाया गया था और करीब-करीब हर चीज पर लगा था। अनुमान था कि कुछ समय बाद यह खत्म हो जाएगा, मगर ऐसा हुआ नहीं।
उसके करीब चार दशक बाद 2014 में मुंबई हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका आई, जिसमें पूछा गया कि बांग्लादेश की लड़ाई के इतने साल बाद भी महाराष्ट्र की सरकारी बसों में हर टिकट पर 15 पैसे का बांग्लादेश चार्ज क्यों वसूला जा रहा है? पता चला कि राज्य की परिवहन एजेंसियां तब तक इस मद में 440 करोड़ रुपये जमा कर चुकी थीं।
इस रकम का क्या करना है, उनको पता नहीं था और वे इसका इस्तेमाल अपने कर्मचारियों का वेतन बांटने या दूसरे खर्चों पर कर रही थीं। याचिका का क्या हुआ, इसकी खबर नहीं मिल पाई है। मगर इससे समझा जा सकता है कि अगर देश के सारे हिस्सों में इस तरह जमा हुई रकम का ही हिसाब जोड़ा जाए, तो उस युद्ध में भारत की जनता के कई हजार-करोड़ रुपये की यह सीधी आहुति थी।
जेल की रोटी का खर्च भी युद्ध के खाते में
उसी लड़ाई में दुनिया के इतिहास का सबसे बड़ा आत्मसमर्पण भी हुआ था। ढाका में पाकिस्तानी जनरल ए ए के नियाजी के साथ करीब 93,000 सैनिकों ने लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने हथियार डाले थे। ये फौजी तब तक भारत की कैद में रहे और जेल की रोटी खाते रहे, जब तक 1972 में शिमला समझौते के बाद उन्हें वापस नहीं भेजा गया। इनका खर्च भी युद्ध के खाते में ही जुड़ता है।
गोला-बारूद, विमान, युद्धपोत, मिसाइल, अब ड्रोन और ऐसी ही तमाम युद्ध सामग्रियों के अलावा सैनिकों व सेना के इंतजाम पर होने वाला खर्च हर लड़ाई में बढ़ता ही जा रहा है। इसका हिसाब देश के बजट में देखा जा सकता है। युद्ध में तबाह होने वाली इमारतों व संपत्ति का भी हिसाब जोड़ा जा सकता है और युद्ध के दौरान होने वाला खर्च भी।
दोनों पक्षों में जिन लोगों की जान जाती है, उनका और उनके परिवारों का जो नुकसान होता है, उसका हिसाब किसी बजट में नहीं दिखेगा, सिर्फ महसूस किया जा सकता है। मगर युद्ध का असर आर्थिक मोर्चे पर लंबे समय तक महसूस किया जाता है, न सिर्फ उन देशों में, जिनके बीच युद्ध होता है, बल्कि बहुत दूर-दूर तक भी। जैसे अभी यूक्रेन-रूस की लड़ाई और इजरायल-हमास संघर्ष का असर पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर साफ दिख रहा है।
पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर असर
एक वरिष्ठ पत्रकार लिखते है कि भारत और पाकिस्तान के बीच जो दो बड़े युद्ध हुए हैं, उन दोनों का भी असर हुआ। 1965 की लड़ाई के पहले 1964 में भारत में महंगाई दर 13.36 प्रतिशत और पाकिस्तान में 4.18 प्रतिशत थी। युद्ध वाले साल में यह आंकड़ा भारत में गिरकर 9.47 प्रतिशत हुआ, जबकि पाकिस्तान में बढ़कर 5.57 प्रतिशत पहुंचा। युद्ध के बाद महंगाई बढ़ने लगी। 1966 में भारत में 10.88 प्रतिशत और पाकिस्तान में 7.23 प्रतिशत महंगाई दर हुई। 1967 में यह आंकड़ा भारत में 13.06 प्रतिशत और पाकिस्तान में 6.81 प्रतिशत पर पहुंचा।
इसके बाद के साल में महंगाई तेजी से गिरी, जिसकी वजह शायद भारत में हरित क्रांति व आर्थिक नीतियों का असर था, जबकि पाकिस्तान में विदेशों से आने वाली मोटी रकम।
दूसरी तरफ, भारत की जीडीपी ग्रोथ 1964 में 7.45 प्रतिशत से गिरकर 1965 में शून्य से भी 2.64 प्रतिशत नीचे चली गई और 1966 में यह कुछ कम ही हुई। यह उबरती है 1967 में। उधर जो पाकिस्तान 1965 में 10 प्रतिशत से ऊपर की रफ्तार से बढ़ रहा था, वह 1966 और 1967 में गिरकर क्रमश: 5.79 प्रतिशत और 5.4 प्रतिशत पर रह जाता है, यानी लगभग आधा।
युद्ध के बाद महंगाई की मार
मगर इसके बाद तस्वीर का रुख फिर से पलट गया। 1970 में भारत की महंगाई दर 5.09 प्रतिशत और पाकिस्तान की 5.35 प्रतिशत थी। युद्ध वाले साल 1971 में यह आंकड़ा भारत में 3.08 प्रतिशत और पाकिस्तान में 4.73 प्रतिशत तक पहुंचा। 1972 में भी थोड़ी सी बढ़त दिखी, लेकिन उसके बाद तो जैसे कहर टूट पड़ा।
1973, 74 और 75 में पाकिस्तान की महंगाई दर थी क्रमश: 23.07 प्रतिशत, 26.66 प्रतिशत और 20.90 प्रतिशत। यही नहीं, इन्हीं वर्षों में पाकिस्तान की जीडीपी की रफ्तार भी 1970 के 11.35 प्रतिशत से गिरकर अगले दो साल में एक प्रतिशत के भी नीचे पहुंच चुकी थी। उसके बाद वहां से उबरने की तमाम कोशिशों के बाद भी वह आर्थिक मोर्चे पर कुछ हासिल करने में नाकाम ही रहा है।
विजय का उल्लास खत्म होते-होते युद्ध का असर
इधर भारत पर भी विजय का उल्लास खत्म होते-होते युद्ध का असर दिखने लगा था। जीडीपी ग्रोथ की रफ्तार 1970 के 5.17 प्रतिशत से 1971 में 1.64 प्रतिशत और 1972 में तो -0.5 प्रतिशत पर पहुंच गई। उसके बाद भी इसे संभलने में दो साल लगे और 1975 में जाकर यह 9.15 प्रतिशत पर पहुंची। उधर महंगाई का हाल देखें, तो 1969 में दाम बढ़ने के बजाय घट रहे थे और 1970 में 5.09 प्रतिशत पर पहुंचकर 1971 में महंगाई दर 3.08 प्रतिशत पर आई। इसके बाद यह बढ़ी, तो 1974 तक 28.60 प्रतिशत की ऐतिहासिक ऊंचाई पर पहुंची।
आम आदमी को चुकानी पड़ती है युद्ध की कीमत
यहां देखने वाली बात यह है कि जिस साल युद्ध होता है, उस वर्ष उसका असर शायद महसूस नहीं होता और उसके बाद के समय में जब देश पुनर्निर्माण में लगा होता है, तब जीडीपी ग्रोथ की रफ्तार भी बढ़ने लगती है। मगर उसी वक्त महंगाई का प्रकोप भी चरम पर होता है और तब आम आदमी को चुकानी पड़ती है युद्ध की कीमत।
आतंकवाद की भी कीमत चुकानी पड़ती है
मगर यह भी याद रखना चाहिए कि शांति-काल में आतंकवाद के रूप में भी कीमत चुकानी पड़ती है। उससे भी आर्थिक विकास में रुकावट आती है। इसकी कीमत चुकाते रहना है या एक बार जोखिम लेना है, यह फैसला आसान नहीं हो सकता। मगर दुनिया के इतिहास में वियतनाम, जापान और इजरायल जैसे उदाहरण भी मौजूद हैं, जो दिखाते हैं कि युद्ध की विभीषिका के बाद भी कैसे राष्ट्र न सिर्फ अपने पैरों पर खड़े होते हैं, बल्कि दुनिया को अपनी आर्थिक ताकत का एहसास भी करवा देते हैं।
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