
नई दिल्ली । भारत और इजरायल (India and Israel) के बीच संबंध एक समय तक ठंडे बस्ते में ही डले रहे हैं। नई दिल्ली की सत्ता पर कोई भी हो लेकिन किसी भी सरकार ने खुलकर इजरायल (israeli) के साथ संबंध बनाने की हिम्मत नहीं दिखाई। अब इन संबंधों को लेकर एक नई किताब (Book) सामने आई है, जिसमें खुलासा किया गया है कि कैसे एक इजरायली विदेश मंत्री भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री से मिलने के लिए भेष और नाम बदलकर भारत आया था। हालांकि जब भारतीय प्रधानमंत्री से मुलाकात के बाद भी उन्हें अपने मन मुताबिक परिणाम नहीं मिले तो उन्होंने भारत की गरीबी और यहां के नेताओं की नैतिक कमजोरी का मजाक भी उड़ाया।
बिलीवर्स डायलेमा नामक किताब में इस बात का खुलासा किया गया है कि 1977 में जनता पार्टी की सरकार के समय इजरायल के विदेश मंत्री मोशे दयान अपना नाम-पहचान बदलकर उस समय प्रधानमंत्री रहे मोरारजी देसाई और विदेश मंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी से मिलने एक गोपनीय यात्रा पर भारत आए, ताकि नई दिल्ली के साथ राजनयिक संबंध स्थापित कर सकें। हालांकि दयान को अपने मिशन में कामयाबी नहीं मिली और उन्हें खाली हाथ ही वापस लौटना पड़ा।
इजरायल और भारत के संबंधों के बारे में बात करती इस किताब के मुताबिक इजरायली विदेश मंत्री दयान 14 अगस्त की दोपहर को नई दिल्ली पहुंचे थे। यहां आने के लिए उन्होंने एक फर्जी नाम का सहारा लिया। इतना ही नहीं किसी अंतरराष्ट्रीय व्यक्ति द्वारा वह पहचान न लिए जाए इसके लिए भी उन्होंने काला चश्मा और टोपी पहन कर रखी। भारत सरकार के अधिकारियों ने उन्हें दिल्ली के सफदरजंग एन्क्लेव के एक निजी आवास में ठहराया।
किताब के मुताबिक इजरायली विदेश मंत्री की यह विदेश यात्रा इसलिए भी गुप्त रखी गई थी। क्योंकि भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को डर था कि यदि यह बैठक सार्वजनिक हुई, तो जनता पार्टी की सरकार खतरे में पड़ सकती है। यह बैठक नई दिल्ली के एक साधारण से सरकारी आवास में हुई। इसको इतना गोपनीय रखा गया कि सरकार का अहम हिस्सा वाजपेयी और तत्कालीन विदेश सचिव जगत मेहता को भी इसके बारे में जानकारी तब दी गई, जब दयान भारत पहुंच गए।
दयान ने यहां प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेई से एक साथ मुलाकात की। किताब के मुताबिक उस समय पर गुटनिरपेक्ष आंदोलन में, संस्थापक सदस्य होने के नाते भारत का एक महत्वपूर्ण प्रभाव था। दयान चाहते थे कि भारत, इजरायल को अपना समर्थन दें, जिससे कम से कम अरब समुदाय के लिए भारत के दीर्घकालिक समर्थन का असर कम हो जाए। हालांकि बैठक में देसाई ने इजराइली मंत्री के प्रस्तावों को अस्वीकार करना जारी रखा। देसाई ने साफ तौर पर इस बात को रखा कि भारत ने भले ही 1950 में इजराइल को मान्यता दे दी थी, लेकिन उन्होंने स्पष्ट किया कि पूर्ण राजनयिक संबंधों पर तभी विचार किया जा सकता है, जब “क्षेत्र में शांति कायम हो जाए।” इतना ही नहीं देसाई ने फलस्तीनी राज्य के प्रति भारत के दीर्घकालिक समर्थन को भी दोहराया और दिल्ली में इजराइली दूतावास खोलने जैसे मामूली कदमों का भी विरोध किया।
दोनों देशों के नेताओं के बीच हुई इस असहज बैठक के बाद दयान इतने नाराज हुए कि उन्होंने भारतीय नेताओं की तरफ से तोहफे में दिए जा रहे चांदी के बर्तनों को भी स्वीकार करने से इनकार कर दिया और जाते समय भारत की गरीबी और नेताओं के की नैतिक कायरता का भी मजाक उड़ाया।
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