
नई दिल्ली । मद्रास हाईकोर्ट (Madras High Court) ने केंद्र सरकार (Central government) को सुझाव दिया है कि वह ऑस्ट्रेलिया (Australia) की तर्ज पर 16 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के सोशल मीडिया (Social media) इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने से जुड़ा कानून लाने की संभावना पर विचार करे। अदालत ने यह टिप्पणी बच्चों की ऑनलाइन सुरक्षा और इंटरनेट पर अश्लील सामग्री की आसान उपलब्धता को लेकर जताई गई चिंता के बीच की है। न्यायमूर्ति जी. जयचंद्रन और न्यायमूर्ति के. के. रामकृष्णन की पीठ ने यह टिप्पणी एक जनहित याचिका (PIL) पर सुनवाई के दौरान की। याचिका में इंटरनेट सेवा प्रदाताओं (ISP) को पैरेंटल कंट्रोल या ‘पैरेंटल विंडो’ सेवा उपलब्ध कराने के निर्देश देने की मांग की गई थी, ताकि बच्चों को पोर्नोग्राफिक कंटेंट से बचाया जा सके।
अदालत ने माना कि इंटरनेट का उपयोग करने वाले बच्चे बेहद संवेदनशील और असुरक्षित स्थिति में हैं, ऐसे में माता-पिता की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। पीठ ने कहा, “जब तक इस तरह का कानून नहीं बनता, तब तक संबंधित प्राधिकरणों को जागरूकता अभियानों को और तेज करना चाहिए और सभी उपलब्ध माध्यमों से संवेदनशील वर्ग तक संदेश पहुंचाना चाहिए।”
2018 में दायर हुई थी जनहित याचिका
यह जनहित याचिका मदुरै जिले के एस. विजयकुमार ने वर्ष 2018 में दायर की थी। याचिका में कहा गया था कि अश्लील सामग्री इंटरनेट पर आसानी से उपलब्ध है और छोटे बच्चे भी इसे बिना किसी रोक-टोक के देख पा रहे हैं। याचिकाकर्ता ने राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग और तमिलनाडु बाल अधिकार संरक्षण आयोग से आग्रह किया था कि वे अपने वैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए ISPs को पैरेंटल कंट्रोल सिस्टम लागू करने और आम लोगों में जागरूकता फैलाने के निर्देश दें।
ऑस्ट्रेलिया के कानून का हवाला
याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता ने हाल ही में ऑस्ट्रेलिया की सरकार द्वारा पारित उस कानून का हवाला दिया, जिसमें 16 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के इंटरनेट और सोशल मीडिया इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाया गया है। उन्होंने सुझाव दिया कि भारत में भी ऐसा ही कानून बनाया जा सकता है। इस पर सहमति जताते हुए अदालत ने कहा कि संबंधित प्राधिकरणों द्वारा दायर जवाबी हलफनामे अदालत को यह विश्वास दिलाने में असफल रहे हैं कि वे कानून के तहत अपनी जिम्मेदारियों का सही ढंग से निर्वहन कर रहे हैं।
अदालत ने कहा, “आयोगों की यह वैधानिक जिम्मेदारी है कि वे समाज के विभिन्न वर्गों में बाल अधिकारों को लेकर जागरूकता फैलाएं और बच्चों की सुरक्षा के लिए उपलब्ध उपायों की जानकारी दें। हालांकि स्कूलों में कुछ जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं, लेकिन यह पर्याप्त नहीं हैं।”
इंटरनेट सेवा प्रदाताओं की ओर से पेश वकीलों ने अदालत को बताया कि वे सूचना प्रौद्योगिकी (इंटरमीडियरी गाइडलाइंस और डिजिटल मीडिया एथिक्स कोड) नियम, 2021 के तहत समय-समय पर समीक्षा करते हैं। आपत्तिजनक वेबसाइटों की सूचना मिलने पर उन्हें ब्लॉक किया जाता है। हालांकि, अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि केवल वेबसाइट ब्लॉक करना ही पर्याप्त नहीं है।
पीठ ने कहा, “बाल यौन शोषण से जुड़ा ऑनलाइन कंटेंट अभी भी मौजूद है। इस पर प्रभावी नियंत्रण तभी संभव है जब यूजर-लेवल पर पैरेंटल कंट्रोल ऐप्स उपलब्ध हों। इसके लिए उपभोक्ताओं को बाल पोर्नोग्राफी के खतरे और उससे बचाव के उपायों के बारे में जागरूक करना जरूरी है।”
अदालत ने यह भी टिप्पणी की कि अंततः किसी सामग्री तक पहुंचना या उससे बचना व्यक्ति का अधिकार और चुनाव है, लेकिन बच्चों के मामले में समाज और सरकार की जिम्मेदारी कहीं अधिक है। अंत में अदालत ने उम्मीद जताई कि केंद्र और राज्य स्तर के बाल अधिकार संरक्षण आयोग इस दिशा में एक ठोस कार्ययोजना तैयार करेंगे और उसे पूरी गंभीरता से लागू करेंगे। इसके साथ ही अदालत ने जनहित याचिका का निपटारा कर दिया।

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