
जबलपुर। मध्य प्रदेश हाई कोर्ट (Madhya Pradesh High Court) ने एक सिविल जज (Civil judge) की याचिका खारिज कर दी। कोर्ट ने कहा कि रिकॉर्ड से पता चला कि याचिकाकर्ता के खिलाफ आरोप साबित हुए हैं। आरोप गंभीर कदाचार के हैं। उन्होंने आपराधिक मुकदमों (Criminal cases) में बिना कोई फैसला लिखे आरोपियों को बरी कर दिया।
बार एंड बेंच की एक रिपोर्ट के अनुसार, मध्य प्रदेश हाई कोर्ट (Madhya Pradesh High Court) ने एक सिविल जज की बर्खास्तगी को बरकरार रखा। सिविल जज पर कम से कम तीन मामलों में बिना कोई निर्णय लिखे आरोपियों को बरी करने का आरोप था।
मुख्य न्यायाधीश सुरेश कुमार कैत (Chief Justice Suresh Kumar Kait) और जस्टिस विवेक जैन (Justice Vivek Jain) की खंडपीठ ने कहा कि इस तरह के गंभीर कदाचार को माफ नहीं किया जा सकता है। पीठ ने ऐसा कहते हुए सिविल जज वर्ग-II महेंद्र सिंह ताराम द्वारा 2014 में सेवा से हटाए जाने को चुनौती देने के लिए दायर याचिका को खारिज कर दिया।
कोर्ट ने कहा, “जब हमने रिकॉर्ड देखा तो पता चला कि याचिकाकर्ता के खिलाफ सभी पांच आरोप साबित हुए। आरोप गंभीर कदाचार के हैं कि उन्होंने आपराधिक मुकदमों में बिना कोई फैसला लिखे आरोपियों को बरी कर दिया। यह स्पष्ट रूप से न्यायिक सेवा की प्रकृति के खिलाफ हैं।” 2016 में अपनी बर्खास्तगी के खिलाफ ताराम द्वारा प्रस्तुत अभ्यावेदन को खारिज कर दिए जाने के बाद उन्होंने हाई कोर्ट का रुख किया था। उन्हें 2003 में न्यायिक अधिकारी के रूप में नियुक्त किया गया था।
2012 में एक औचक निरीक्षण से पता चला कि उन्होंने अंतिम फैसला लिखे बिना तीन आपराधिक मामलों में अभियुक्तों को बरी कर दिया था। यह भी पाया गया कि उन्होंने दो अन्य आपराधिक मामलों को बिना ऑर्डर-शीट तैयार किए स्थगित कर दिया था। बाद में जांच अधिकारी ने पाया कि ताराम के खिलाफ सभी पांच आरोप सिद्ध हो गए हैं, जिसके कारण ताराम को सेवा से हटाने का निर्णय लिया गया।
इस निर्णय को चुनौती देने वाली याचिका में ताराम ने तर्क दिया कि उसकी गलती जायज थी। वह कार्यभार के दबाव के साथ-साथ व्यक्तिगत परेशानियों के बावजूद अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे थे। उनका मुख्य तर्क यह था कि एक अन्य न्यायिक अधिकारी, जिस पर इसी तरह के आरोप लगे थे, को दो वेतन वृद्धि रोककर बहुत कम सजा दी गई थी।
हालांकि, कोर्ट ने पाया कि दूसरे न्यायिक अधिकारी के खिलाफ आरोप एक जैसे नहीं थे। दूसरे न्यायिक अधिकारी के खिलाफ आरोप यह था कि उन्होंने कुछ सिविल मामलों में बिना लिखित निर्णय के ही मामलों को तय घोषित कर दिया था। उनके खिलाफ दूसरा आरोप यह था कि उन्होंने कुछ सिविल मामलों में फैसला तो सुनाया था, लेकिन केस की फाइलें रिकॉर्ड रूम में जमा नहीं कराई थीं।
कोर्ट ने ताराम के समानता के दावे को खारिज करते हुए कहा कि सिद्धार्थ शर्मा के खिलाफ लगाए गए आरोप याचिकाकर्ता के आरोपों से भिन्न हैं। इसलिए याचिकाकर्ता आदेश के साथ समानता का दावा नहीं कर सकता। इसके बाद कोर्ट ने याचिका खारिज कर दी और ताराम की सेवा से बर्खास्तगी को बरकरार रखा।
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