
बीजिंग । बारिश से भीगे शान्शी प्रांत के यांगक्वान स्थित पहाड़ी संग्रहालय (museum) के बाहर एक विशाल टेलीविजन स्क्रीन पर हाल ही में राष्ट्रपति शी जिनपिंग (President Xi Jinping) का भाषण लगातार प्रसारित हो रहा था। जुलाई में इस संग्रहालय की यात्रा के दौरान शी ने छात्रों से कहा था कि “जापान के खिलाफ चीन के प्रतिरोध युद्ध में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ही राष्ट्र की रीढ़ थी।” यह स्थल 1940 में चीन और जापानी सेनाओं के बीच हुई भीषण लड़ाई का गवाह है, जिसमें करीब 17,000 चीनी सैनिक मारे गए या घायल हुए थे। इस स्मरण के 85 वर्ष बाद भी शी जिनपिंग ने इसे पुनर्जीवित कर एक व्यापक राजनीतिक परियोजना का हिस्सा बना दिया है। इसे द्वितीय विश्व युद्ध की वैश्विक चर्चा को नया रूप देने और कम्युनिस्ट पार्टी को अमेरिका जैसी महाशक्तियों के बराबर विजेता के रूप में पेश करने का प्रयास कहा जा रहा है।
आज यानी 3 सितंबर को बीजिंग के तियानमेन स्क्वायर पर आयोजित भव्य सैन्य परेड न केवल चीन की सैन्य शक्ति का प्रदर्शन है, बल्कि इसके पीछे गहरा ऐतिहासिक और भू-राजनीतिक संदर्भ भी छिपा है। यह परेड द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की हार और चीन की जीत की 80वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में आयोजित की जा रही है।
जापान और चीन: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि समझिए
चीन और जापान के बीच संबंधों का इतिहास जटिल और तनावपूर्ण रहा है, खासकर 19वीं और 20वीं सदी में। इस परेड का ऐतिहासिक संदर्भ समझने के लिए हमें इन दोनों देशों के बीच द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हुए घटनाक्रमों को देखना होगा।
1. प्रथम सिनो-जापानी युद्ध (1894-1895): यह युद्ध कोरिया पर नियंत्रण को लेकर लड़ा गया था। जापान की जीत ने ताइवान और अन्य क्षेत्रों पर उसका कब्जा सुनिश्चित किया। इस हार ने चीन में किंग राजवंश की कमजोरी को उजागर किया और जापान को एक उभरती हुई शक्ति के रूप में स्थापित किया।
2. द्वितीय सिनो-जापानी युद्ध (1937-1945): यह युद्ध द्वितीय विश्व युद्ध का हिस्सा था और इसे चीन में जापान के आक्रमण के खिलाफ प्रतिरोध युद्ध के रूप में जाना जाता है। 1937 में मार्को पोलो ब्रिज की घटना के बाद जापान ने चीन पर बड़े पैमाने पर आक्रमण किया।
नानजिंग नरसंहार (1937-1938): जापानी सेना ने नानजिंग पर कब्जा करने के बाद बड़े पैमाने पर नरसंहार किया, जिसमें लाखों चीनी नागरिक और सैनिक मारे गए। यह घटना आज भी चीन-जापान संबंधों में एक संवेदनशील मुद्दा है।
जापान का आत्मसमर्पण: 3 सितंबर 1945 को जापान ने औपचारिक रूप से आत्मसमर्पण किया, जिसे चीन ‘विक्ट्री ओवर जापान डे’ के रूप में मनाता है। यह दिन चीन के लिए राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक है।
3. युद्ध के बाद के संबंध: युद्ध के बाद जापान और चीन के बीच संबंध सामान्य होने में समय लगा। 1972 में दोनों देशों ने कूटनीतिक संबंध स्थापित किए, लेकिन ऐतिहासिक कटुता और क्षेत्रीय विवाद (जैसे सेनकाकू/दियाओयू द्वीप) ने तनाव को बनाए रखा।
जापान ने युद्ध के दौरान अपनी कार्रवाइयों के लिए माफी मांगी है, लेकिन चीन का मानना है कि ये माफियां अपर्याप्त हैं, और वह जापान को अपने खिलाफ नैरेटिव बनाने के लिए दोषी ठहराता है।
परेड का महत्व और शी जिनपिंग का मकसद
चीन की यह सैन्य परेड, जिसे 2015 की परेड से भी भव्य बताया जा रहा है, कई मायनों में ऐतिहासिक है। इस परेड में हजारों सैनिक, सैकड़ों सैन्य वाहन, टैंक, मिसाइल, 100 से अधिक लड़ाकू विमान, और अत्याधुनिक हथियार जैसे हाइपरसोनिक मिसाइलें और मानवरहित ड्रोन शामिल हुए। यह परेड न केवल सैन्य शक्ति का प्रदर्शन है, बल्कि शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन की वैश्विक स्थिति को मजबूत करने और राष्ट्रीय गौरव को बढ़ावा देने का एक रणनीतिक कदम है।
यह परेड द्वितीय विश्व युद्ध में जापान के खिलाफ चीन की जीत को राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक के रूप में पेश करती है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) और पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) के लिए यह आयोजन आंतरिक और बाहरी दर्शकों के लिए एक मजबूत संदेश है कि चीन किसी भी बाहरी चुनौती का सामना करने में सक्षम है।
परेड में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन, उत्तर कोरिया के नेता किम जोंग-उन, और ईरान के राष्ट्रपति मसूद पेजेशकियन सहित 26 देशों के नेता या सैन्य प्रमुख शामिल हुए। यह चीन के बढ़ते कूटनीतिक प्रभाव को दर्शाता है, खासकर ‘ग्लोबल साउथ’ के बीच। परेड को पश्चिमी देशों, विशेष रूप से अमेरिका, और ताइवान के लिए एक चेतावनी के रूप में देखा जा रहा है। शी जिनपिंग इस आयोजन के जरिए यह संदेश देना चाहते हैं कि चीन किसी भी युद्ध के लिए तैयार है। इसके अलावा, परेड का समय और संदेश जापान के खिलाफ एक ऐतिहासिक नैरेटिव को मजबूत करता है, जिसे चीन अपनी जीत और जापान की हार के प्रतीक के रूप में पेश करता है।
वर्तमान तनाव: जापान का विरोध और परेड का कूटनीतिक प्रभाव
जापान ने इस परेड को लेकर कई देशों से इसमें शामिल न होने का अनुरोध किया है। जापान का मानना है कि यह परेड जापान-विरोधी भावनाओं को भड़काने और ऐतिहासिक कटुता को बढ़ावा देने का प्रयास है। इसके जवाब में चीन ने जापान के खिलाफ राजनयिक विरोध दर्ज किया और इस परेड को इतिहास को याद करने और शांति का आह्वान बताया।
जापान ने अपने 2025 के रक्षा श्वेत पत्र में चीन को अपनी सबसे बड़ी रणनीतिक चुनौती बताया है। हाल के वर्षों में चीन ने जापानी हवाई क्षेत्र और जलक्षेत्र में घुसपैठ की है, जिससे तनाव बढ़ा है। उदाहरण के लिए, अगस्त 2024 में एक चीनी सैन्य विमान ने जापानी हवाई क्षेत्र में प्रवेश किया।
CRINK गठजोड़: जापान ने चीन, रूस, और उत्तर कोरिया के बीच बढ़ते सैन्य और कूटनीतिक सहयोग को ‘CRINK’ (China, Russia, Iran, North Korea) गठजोड़ के रूप में चिह्नित किया है, जो क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है। चीन की सैन्य गतिविधियां ताइवान और दक्षिण चीन सागर में बढ़ रही हैं, जो जापान के लिए चिंता का विषय है। जापान ताइवान के साथ घनिष्ठ रक्षा संबंध रखता है।
चीन इस परेड को वैश्विक शांति और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बने विश्व व्यवस्था की रक्षा के प्रतीक के रूप में पेश करता है। परेड में शामिल होने वाले नेताओं की मौजूदगी, खासकर रूस, उत्तर कोरिया, और ईरान जैसे देशों के नेताओं की, चीन के वैश्विक प्रभाव को दर्शाती है। यह पश्चिमी देशों, विशेष रूप से अमेरिका, के लिए एक चुनौती के रूप में देखा जा रहा है।
इतिहास को हथियार बनाने की रणनीति
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की तर्ज पर शी भी इतिहास का सहारा लेकर राष्ट्रीय एकता और देशभक्ति को मजबूत करना चाहते हैं। आर्थिक सुस्ती, कमजोर रोजगार बाजार और आवास संकट के बीच यह मुहिम घरेलू मोर्चे पर समर्थन जुटाने का भी साधन है। साथ ही, ताइवान पर बीजिंग के दावों को वैध ठहराने और वैश्विक मंच पर चीन को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बनी विश्व व्यवस्था का स्तंभ दिखाने की कवायद भी इसमें झलकती है।
बुधवार को बीजिंग के तियानआनमेन चौक पर हुई सैन्य परेड इसी रणनीति का हिस्सा है। यह जापान के आत्मसमर्पण की 80वीं वर्षगांठ है। गौरतलब है कि 2014 में चीन की शीर्ष संसद ने 3 सितंबर को “विजय दिवस” घोषित किया था और उसी वर्ष पहली बार इस अवसर पर परेड आयोजित की गई थी।
ताइवान विवाद में इतिहास का इस्तेमाल
चीन का दावा है कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हुए कुछ समझौतों से ताइवान पर उसकी वैधता साबित होती है। हालांकि पश्चिमी देश 1951 की सैन फ्रांसिस्को संधि को आधार मानते हैं, जिसमें जापान ने ताइवान पर अधिकार छोड़ा जरूर, लेकिन उसे चीन को सौंपने का स्पष्ट उल्लेख नहीं है।
1945 में जापान के आत्मसमर्पण के बाद राष्ट्रवादी सरकार (कुओमिनतांग) ने ताइवान का प्रशासन संभाला। उस समय कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में नहीं थी। यही कारण है कि ताइवान की सत्तारूढ़ डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (DPP) बीजिंग पर इतिहास तोड़-मरोड़कर पेश करने का आरोप लगाती है। ताइवान के राष्ट्रपति लाई ने बीजिंग की परेड में अधिकारियों की भागीदारी पर रोक भी लगा दी है।
घरेलू और अंतरराष्ट्रीय संदेश
इतिहास को लेकर यह खींचतान केवल ताइवान तक सीमित नहीं है। हाल ही में स्थापित चीनी इतिहास अनुसंधान संस्थान ने राष्ट्रवादी नेतृत्व की भूमिका को “अनावश्यक महिमामंडन” बताते हुए लेख प्रकाशित किया, जिसमें दोहराया गया कि जापान के खिलाफ असली संघर्ष कम्युनिस्ट पार्टी ने ही शुरू किया था। विशेषज्ञों का मानना है कि यह चीन की दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा है- पार्टी के नेतृत्व को अतीत और वर्तमान दोनों में चीन की समृद्धि का आधार साबित करना।
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