
नई दिल्ली। बिहार विधानसभा चुनाव (Bihar Assembly Elections)से ठीक पहले वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण (special in-depth review) को लेकर उठे विवाद(Controversy) ने अब चुनाव आयोग(election Commission) को सीधे सुप्रीम कोर्ट के कठघरे में ला खड़ा किया है. याचिकाकर्ता ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR)’ नामक एनजीओ ने शनिवार को सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयोग के उस रुख को ‘अत्यंत असंगत और हास्यास्पद’ बताया, जिसमें आधार कार्ड, वोटर आईडी और राशन कार्ड को अकेले वैध पहचान दस्तावेज मानने से इनकार किया गया है.
सुप्रीम कोर्ट ने 10 जुलाई को चुनाव आयोग से पूछा था कि जब आधार, वोटर आईडी और राशन कार्ड नागरिकों के अन्य प्रमाण पत्र जैसे निवास प्रमाण पत्र, जाति प्रमाण पत्र आदि प्राप्त करने के लिए आधारभूत दस्तावेज माने जाते हैं, तो फिर उन्हें SIR में वैध प्रमाण पत्र के रूप में क्यों नहीं माना जा सकता?
इसके जवाब में चुनाव आयोग ने कहा कि इन दस्तावेजों की फर्जीवाड़े की संभावना ज्यादा है, इसलिए इन्हें अकेले में पर्याप्त नहीं माना जा सकता. लेकिन याचिकाकर्ता एनजीओ ने चुनाव आयोग की इस दलील को नकारते हुए कहा कि सूचीबद्ध 11 दस्तावेजों में से कोई भी फर्जी तरीके से प्राप्त किया जा सकता है, और यह तर्क आधारहीन और भेदभावपूर्ण है.
‘निवास प्रमाणपत्रों की संख्या बिहार की आबादी से भी अधिक!’
ADR ने चुनाव आयोग के हलफनामे का हवाला देते हुए दावा किया कि आयोग खुद कह चुका है कि 2011 से 2025 के बीच 13.89 करोड़ निवास प्रमाणपत्र और 8.72 करोड़ जाति प्रमाणपत्र जारी किए गए, जबकि बिहार की कुल आबादी लगभग 13 करोड़ के आसपास है.
ADR ने तर्क दिया, ‘अगर इतने असंख्य निवास प्रमाणपत्र SIR 2025 में वैध माने जा सकते हैं, तो राशन कार्ड को केवल फर्जीवाड़े की आशंका के आधार पर खारिज करना तर्कसंगत नहीं हो सकता.’
आधार के बहाने आयोग पर निशाना
ADR ने अदालत में कहा कि आधार कार्ड को खुद आयोग की ओर से बताए गए 11 दस्तावेजों में से निवास प्रमाणपत्र, जाति प्रमाणपत्र, पासपोर्ट आदि को प्राप्त करने के लिए प्राथमिक प्रमाण पत्र के रूप में स्वीकार किया गया है. ऐसे में अगर आधार के जरिये ही ये दस्तावेज बन रहे हैं, तो फिर आधार को ही खारिज करना ‘हास्यास्पद’ और ‘असंगत’ है.
राजनीतिक समर्थन के दावे पर भी सवाल
चुनाव आयोग ने दावा किया था कि SIR को लेकर सभी राजनीतिक दल उसके साथ हैं. लेकिन याचिकाकर्ता ने इसका खंडन करते हुए कहा, ‘SIR जैसे नए अभ्यास की मांग किसी भी राजनीतिक दल ने नहीं की थी.’ दरअसल, विपक्षी दलों की चिंताएं फर्जी मतदाताओं को जोड़ने और वास्तविक वोटरों के नाम हटाए जाने को लेकर थीं- न कि किसी नए सिरे से नागरिकता की जांच को लेकर.
NGO ने कोर्ट को आगाह किया कि जिन लोगों के नाम ड्राफ्ट वोटर लिस्ट में नहीं मिलेंगे, उनके पास ना तो अपील दायर करने, ना ही अपनी नागरिकता साबित करने, और फिर से नाम जुड़वाने के लिए पर्याप्त समय होगा- जबकि बिहार विधानसभा चुनाव नवंबर 2025 में संभावित हैं.
चुनाव आयोग की मंशा पर सवाल
ADR ने अदालत में जोर देकर कहा कि चुनाव आयोग न सिर्फ मूलभूत दस्तावेजों को खारिज कर रहा है, बल्कि इस पूरी कवायद की जरूरत और औचित्य को भी साबित नहीं कर सका है. NGO ने कहा कि यह कवायद कहीं वोटर डिलिशन यानी मतदाता हटाने का जरिया न बन जाए, इस पर कोर्ट को सतर्क रहना चाहिए.
SIR के तहत मतदाता सूची की सफाई के नाम पर चुनाव आयोग की नीयत और तर्कशक्ति दोनों ही सुप्रीम कोर्ट में कटघरे में आ गई है. याचिकाकर्ता ADR ने आधार, राशन कार्ड और वोटर आईडी जैसे दस्तावेजों को खारिज किए जाने को तर्कहीन बताते हुए आयोग का कच्चा चिट्ठा खोल कर रख दिया है. अब अदालत के फैसले पर सबकी निगाहें टिकी हैं, जो इस पूरे विवाद का भविष्य तय करेगा.
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