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संजा पर्व- संयुक्त परिवार की मान्यता पर संकट

September 09, 2020

उज्जैन। एक जमाना था जब संयुक्त परिवार समाज में सिर उपर उठाकर जीने का पूरक होता था। समाज में शान से कहा जाता था कि फंला परिवार में इतने सदस्य है। सभी एक साथ, एक छत के नीचे रहते हैं। परिवार के मुखिया को इस बारे में जहां सम्मान मिलता था वहीं वे भी किसी के साथ भेदभाव नहीं करते थे। सबके साथ एक जैसा व्यवहार होता था। किसी के भी रिश्तेदार आ जाएं, वे एक नजर से देखे जाते थे। यही कारण रहता था कि संयुक्त परिवार सालों साल चलते और परिवार के सभी सदस्य एक दूसरे की सहायता से आर्थिक रूप में भी मजबूत होते जाते थे।

आज की स्थिति उससे भिन्न है। बहू आने के बाद अमूमन परिवारों में किसी न किसी बहाने टूटन आ ही जाती है। परिवार बिखर जाते हैं वहीं छोटे बच्चे अपने दादा-दादी, ताउ-ताई, चाचा-चाची का दुलार भी नहीं पाते हैं। यही कारण है कि सिर्फ माता-पिता के बीच पली, बड़ी पीढ़ी अपना अगला कदम अपने ही माता, पिता को छोडऩे का उठाती है, चूंकि उन्‍होंने अपने माता-पिता का कभी उनके माता-पिता से स्नेह नहीं देखा, इसलिए वे भी उसी सांचे में ढल जाते है। जबकि संयुक्त परिवार में परिवार के सदस्यों के प्रति संवेदना, स्नेह, आपसी लगाव आदि सीखकर बच्चे बड़े होते हैं। वे देखते हैं कि उनके माता-पिता, दादा-दादी को संभाल रहे हैं। ऐसे में वे भी बुजूर्ग होने पर अपने माता-पिता की साज-संभाल करते है।

नवमी को बनेंगे डोकरा-डोकरी
संजा पर्व में नवमी को डोकरा-डोकरी बनाए जाएंगे। परिवारों में यह मान्यता रहती है कि बुजूर्ग का होना आवश्यक है, ताकि परिवार टूटे नहीं और संयुक्त संपत्ति का बंटवारा न हो। पहले के जमाने में संयुक्त परिवारों की परिपाटी घर के बुजूर्ग पर ही निर्भर करती थी। वे ही पूरे परिवार के सभी सदस्यों का ध्यान रखते थे। चाहे सामाजिक हो, चाहे सांस्कृतिक हो या फिर धार्मिक आयोजन। सभी के साथ एक जैसा व्यवहार किया जाता था। संजा के माण्डनों में नवमी को लेकर यही मान्यता है कि परिवार में एक साथ रहना जहां ताकत का पूरक है वहीं संस्कृति, परंपराओं तथा सीखने की उम्र में बच्चों में संस्कार डल जाए, इसका भी द्योतक है। आज की पीढ़ी को देखना चाहिए कि वे संयुक्त परिवार, अपने परिवार के बुजूर्गो के प्रति कितने संवेदनशील है। वरना उन्हे भी एक दिन बड़ा, बुजूर्ग होना है। (हि.स.)

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