
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने सोमवार को उस जनहित याचिका (PIL) पर विचार करने पर अपनी सहमति दे दी है, जिसमें सरकारी नौकरियों में आरक्षण (Reservation Government Jobs.) की अधिक न्यायसंगत व्यवस्था (Fair system) के लिए नीतियां बनाने का केंद्र को निर्देश देने का अनुरोध किया गया है। जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ ने रमाशंकर प्रजापति और यमुना प्रसाद की जनहित याचिका (Public interest litigation) पर केंद्र को नोटिस जारी किया है और 10 अक्टूबर तक जवाब मांगा है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मसले पर सुनवाई करने के लिए सहमति देने के बाद देश में आरक्षण पर नई बहस छिड़ सकती है।
पीठ ने भी याचिकाकर्ता के वकील से कहा कि वह भारी विरोध का सामना करने के लिए तैयार रहें, क्योंकि इस जनहित याचिका के दूरगामी प्रभाव हो सकते हैं। याचिकाकर्ताओं ने अधिवक्ता संदीप सिंह के माध्यम से जनहित याचिका दायर की है, जिसमें कहा गया है कि यह दृष्टिकोण संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 को मजबूत करेगा और मौजूदा आरक्षण सीमा में बिना किसी छेड़छाड़ के समान अवसर सुनिश्चित करेगा।
आरक्षण के बावजूद वंचित लोग पीछे
याचिका में कहा गया है कि दशकों से आरक्षण के बावजूद, आर्थिक रूप से सबसे वंचित लोग अकसर पीछे छूट जाते हैं और आरक्षित श्रेणियों के अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति वाले लोग इसका लाभ उठाते हैं लेकिन आय के आधार पर प्राथमिकता देने से यह सुनिश्चित होगा कि मदद वहीं से शुरू हो जहां आज इसकी सबसे अधिक जरूरत है। जनहित याचिका में कहा गया है, ‘‘अनुसूचित जाति (एससी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) श्रेणियों से संबंधित याचिकाकर्ता, वर्तमान याचिका के माध्यम से इन समुदायों के भीतर आर्थिक असमानताओं को उजागर करना चाहते हैं, जिसके कारण मौजूदा आरक्षण नीतियों के तहत लाभों का असमान वितरण हुआ है।’’
मौजूदा व्यवस्था में कई विसंगतियां
याचिका में यह तर्क भी दिया गया है कि आरक्षण की रूपरेखा शुरू में ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदायों के उत्थान के लिए शुरू की गई थी, लेकिन वर्तमान प्रणाली इन समूहों में अपेक्षाकृत समृद्ध आर्थिक स्तर और उच्च सामाजिक स्थिति वाली पृष्ठभूमि से संबंधित लोगों को असमान रूप से लाभान्वित करती है, जबकि आर्थिक रूप से सबसे वंचित सदस्यों के लिए अवसरों तक सीमित पहुंच होती है।
अब समय आ गया है कि इस पर…
जस्टिस कांत ने कहा कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के कई लोग आरक्षण के माध्यम से सरकारी नौकरियों की उच्च श्रेणियों में प्रवेश करके सामाजिक और आर्थिक रूप से सक्षम हो सकते हैं और अपने बच्चों को सर्वोत्तम शिक्षा और सुविधाएँ प्रदान कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि अब समय आ गया है कि इस पर विचार किया जाए कि क्या ऐसे वर्ग के लोगों को अपने ही समुदाय के उन सदस्यों की कीमत पर आरक्षण का लाभ उठाना जारी रखना चाहिए जो गरीबी में जी रहे हैं और सामाजिक समस्याओं का सामना कर रहे हैं।
पिछले साल जस्टिस गवई ने क्या कहा था?
जस्टिस कांत की अध्यक्षता वाली पीठ के सामने इस मसले पर सुनवाई करने की चुनौती इतनी कठिन नहीं होगी क्योंकि जस्टिस बीआर गवई, जो दलित समुदाय से भारत के मुख्य न्यायाधीश बनने वाले दूसरे सदस्य हैं, द्वारा लिखित सात न्यायाधीशों की पीठ के फैसले ने पिछले साल 1 अगस्त को राज्यों को सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन और सरकारी नौकरियों में कम प्रतिनिधित्व के आधार पर अनुसूचित जाति समुदायों के भीतर जातियों का उप-वर्गीकरण करने की अनुमति दी थी, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि 15% आरक्षण का बड़ा हिस्सा सबसे पिछड़े वर्गों को मिले। तब न्यायालय ने सरकारों से अनुसूचित जातियों के ‘क्रीमी लेयर’ को आरक्षण का लाभ उठाने से रोकने के लिए उपयुक्त मानदंड तैयार करने को कहा था।
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