
नई दिल्ली । 1993 का साल था, देश की अर्थव्यवस्था के दरवाजे विदेशी कंपनियों के लिए खुल चुके थे. पीवी नरसिम्हा राव की अगुवाई में चल रही कांग्रेस की सरकार पीठ थपथपा रही थी, लेकिन उसी समय एक ऐसा कांड हुआ कि पूरा देश हिल गया. दरसअल, पहली बार सांसदों पर घूस लेने के आरोप लगे. देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद की पवित्रता पर अब तक ये सबसे बड़ा सवाल था. 31 साल बाद यह घटना फिर से भारत की राजनीति में सुर्खियों में है. वजह सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला है.
सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की बेंच ने कैश फॉर वोट पर अपने ही 26 साल पुराने फैसले को पलट दिया है. चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा है कि रिश्वत लेकर सदन में वोट देने या सवाल पूछने पर सांसदों या विधायकों को विशेषाधिकार के तहत मुकदमे से छूट नहीं मिलेगी.
1998 में सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच ने अपने फैसले में रिश्वत लेकर सदन के भीतर वोट देने को विशेषाधिकार माना था. उस वक्त 5 जजों की संवैधानिक बेंच ने बहुमत से कहा था कि सदन में भाषण देने या वोट के लिए रिश्वत लेने पर सांसदों और विधायकों के खिलाफ कोई मुकदमा नहीं चलेगा.
कोर्ट ने कैश फॉर वोट मामले में फिर क्यों की सुनवाई?
1998 में सुप्रीम फैसले के बाद कैश फॉर वोट कांड का मामला खत्म हो गया था, लेकिन 2012 में इसका जिन्न फिर से निकला. दरअसल, 2012 के राज्यसभा चुनाव में झामुमो की सीता सोरेन पर राज्यसभा के निर्दलीय प्रत्याशी आरके अग्रवाल से डेढ़ करोड़ रुपए लेने का आरोप लगा.
मामले की जांच सीबीआई को सौंपी गई. सीबीआई ने इस केस में सीता सोरेन के नौकर को सरकारी गवाह बनाया. कोर्ट में सोरेन की तरफ 1998 के नरसिम्हा राव वर्सेज स्टेट मामले की दलील दी गई, जिसके बाद यह मामला फिर से सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया.
अब जानिए कैश फॉर वोट कांड क्या है?
1993 में भारतीय जनता पार्टी और सीपीएम समेत कई विपक्षी दलों ने नरसिम्हा राव सरकार के खिलाफ संसद में अविश्वास प्रस्ताव पेश किया. विपक्ष के इस साझा गठबंधन के पास पर्याप्त बहुमत था, लेकिन फिर भी राव सरकार बचाने में सफल रहे.
राव के विश्वासमत हासिल करने के बाद विपक्ष ने सरकार पर हॉर्स ट्रेडिंग(खरीद-फरोख्त) का आरोप लगाया. विपक्ष के इस आरोप को 1996 में तब बल मिला, जब झामुमो के एक सांसद शैलेंद्र महतो ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कैश फॉर वोट कांड का खुलासा किया.
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