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कर्नाटक सरकार के हेट स्पीच बिल के खिलाफ केंद्र, राज्यपाल से OK नहीं करने की सिफारिश

December 20, 2025

नई दिल्ली: कर्नाटक (Karnataka) में सत्तारुढ़ कांग्रेस (Congress) के अंदर शीर्ष पद के लिए भले ही संघर्ष चल रहा हो, वहीं सिद्धारमैया सरकार (Siddaramaiah Government) के एक बिल (Bill) को लेकर केंद्र और राज्य सरकार में भी तनातनी की स्थिति बन रही है. हाल यह है कि केंद्रीय मंत्री शोभा करंदलाजे (Shobha Karandlaje) ने राज्य के राज्यपाल थावरचंद गहलोत से कर्नाटक हेट स्पीच एंड हेट क्राइम (प्रिवेंसन) बिल 2025 (Hate Speech and Hate Crimes (Prevention) Bill, 2025) पर अपनी रजामंदी नहीं देने का अनुरोध किया. उनका कहना है कि यह बिल ‘अस्पष्ट है और इसके दुरुपयोग की आशंका’ वाला है.

केंद्रीय मंत्री ने संवैधानिक शासन, लोकतांत्रिक आजादी और कानून के शासन के व्यापक हित को देखते हुए, संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के विचार के लिए बिल को रिजर्व करने का भी अनुरोध किया. कर्नाटक विधानमंडल के दोनों सदनों से पारित बिल को अब राज्यपाल की सहमति के लिए भेजा जाएगा.

अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘X’ पर केंद्रीय मंत्री ने कहा, “कर्नाटक हेट स्पीच एंड हेट क्राइम (प्रिवेंसन) बिल 2025 राज्य को विपक्षी लोगों की आवाजों को चुप कराने, मीडिया पर लगाम कसने और कर्नाटक की धरती, भाषा और धर्म की रक्षा करने वाले नागरिकों को डराने-धमकाने का अधिकार देता है. यह नफरत फैलाने वाला हेट स्पीच बिल नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा बिल है जो बोलने के अधिकार को रोकता है.” उन्होंने राज्य सरकार को चुनौती देते हुए कहा, “हम कांग्रेस को कानून को अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतांत्रिक असहमति को दबाने का हथियार नहीं बनाने देंगे.”


राज्यपाल गहलोत को भेजे पत्र में शोभा करंदलाजे ने कहा कि बिल का मकसद हेट स्पीच और हेट क्राइम को संबोधित करना है. हालांकि, सावधानी के साथ पड़ताल करने पर, यह पता चलता है कि बिल, अपने वर्तमान स्वरूप में, सार्वजनिक व्यवस्था के लिए स्पष्ट और खतरा पैदा करने वाली अभिव्यक्ति को संकीर्ण रूप से संबोधित करने की जगह भाषण की निगरानी, ​​​​मूल्यांकन और दंडित करने के लिए एक “राज्य-नियंत्रित तंत्र” स्थापित करता है.

उन्होंने कहा, “बिल की संरचना सक्षम अधिकारियों को अभिव्यक्ति की अनुमति तय करने में सक्षम बनाती है, और यही कानून आगे चलकर सरकार की आलोचना करने वाली आवाजों को दबाने के मामले में सक्षम उपकरण में बदल जाता है. इस तरह की स्थिति लोकतांत्रिक असहमति और अभिव्यक्ति की संवैधानिक गारंटी को कमजोर करती है.”

अपने पत्र में संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के संदर्भ का हवाला देते हुए, जो देश के हर नागरिक को भाषण और अभिव्यक्ति की आजादी की गारंटी देता है, केंद्रीय मंत्री ने कहा, “यह बिल “असहमति,” “द्वेष” और “पूर्वाग्रही हित” जैसे व्यापक, अस्पष्ट और व्यक्तिपरक अभिव्यक्तियों को नियोजित करके इन संवैधानिक सीमाओं से हट जाता है, जिन्हें सही तरीके से परिभाषित नहीं किया गया है. ये शर्तें कार्यपालिका को अत्यधिक अधिकार देती हैं.”

मंत्री ने अपनी शिकायत में यह भी आरोप लगाया कि बिल कार्यकारी अधिकारियों और कानून को लागू करने वाली एजेंसियों को पर्याप्त न्यायिक निरीक्षण के बिना ही भाषण का आकलन करने और उस पर कार्रवाई करने के लिए अधिकृत करता है. दंडात्मक परिणाम कार्यकारी मूल्यांकन से जुड़े होते हैं, जिससे कार्यपालिका के भीतर जांच और न्यायिक कार्यों पर ध्यान केंद्रित होता है. उनका कहना है कि इस तरह की व्यवस्था प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों को कमजोर करती है.

उन्होंने चिंता जताते हुए कहा, “कानून की अस्पष्ट और विस्तृत भाषा का इस्तेमाल कन्नड़ भाषा के कार्यकर्ताओं, महिला संगठनों, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों, अल्पसंख्यकों, पत्रकारों, पिछड़े वर्गों, छात्र समूहों और नागरिक समाज संगठनों को चुप कराने के लिए किया जा सकता है जो शासन, सामाजिक न्याय या फिर प्रशासनिक जवाबदेही से जुड़े मुद्दे उठाते हैं.”

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