
डेस्क: ड्रैगन (Dragon) की दहाड़ ने दुनिया को मुश्किल में डाल दिया है. वह लंबे समय से रेयर अर्थ मैग्नेट्स (Rare Earth Magnets) को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करने की तैयारी कर रहा था और अब उसने मौका देखकर इनका एक्सपोर्ट (Exports) रोक दिया है. भारत, अमेरिका समेत कई देश इससे परेशान हैं क्योंकि इन मैग्नेट्स का इस्तेमाल ऑटो, इलेक्ट्रॉनिक्स और खासकर इलेक्ट्रिक व्हीकल्स (Electric Vehicles) में होता है. भारत में तो ईवी प्रोडक्शन तक रुकने की नौबत आ गई है, क्योंकि अप्रैल से ही चीन ने भारत को सप्लाई बंद कर दी है.
यूएस जियोलॉजिकल सर्वे के अनुसार, चीन का रेयर अर्थ उत्पादन 2014 से अब तक तीन गुना बढ़ चुका है. साल 2024 में चीन ने 2.7 लाख मीट्रिक टन रेयर अर्थ मेटल्स बनाए, जो पूरी दुनिया के उत्पादन का करीब 69% है. इसके मुकाबले अमेरिका सिर्फ 45,000 टन और म्यांमार 31,000 टन ही उत्पादन कर पाते हैं. ग्लोबल मार्केट में अमेरिका की हिस्सेदारी 11% और म्यांमार की 8% है. ऐसे में चीन की बढ़ती पकड़ पूरी दुनिया की सप्लाई चेन के लिए बड़ा खतरा बनती जा रही है.
रिपोर्ट के मुताबिक, चीन ने पिछले 10 वर्षों में Rare Earth मेटल्स का उत्पादन तीन गुना तक बढ़ा दिया है. पहले जहां इसका सालाना उत्पादन 130,000 टन हुआ करता था, वहीं अब यह आंकड़ा 494,000 टन तक पहुंच चुका है. यानी दुनिया में जितना Rare Earth उत्पादित होता है, उसमें 60% से ज्यादा हिस्सा सिर्फ चीन का है.
चीन न केवल इन खनिजों का सबसे बड़ा उत्पादक है, बल्कि इनके प्रोसेसिंग और फिनिशिंग में भी महारत रखता है.चीन, अमेरिका और म्यांमार के अलावा नाइजीरिया, ऑस्ट्रेलिया और थाईलैंड में भी रेयर अर्थ का उत्पादन होता है, लेकिन असली ताकत चीन के पास है. इसका मतलब है कि Rare Earth के ज्यादातर कंपोनेंट्स और मटेरियल चीन से होकर ही गुजरते हैं. अमेरिका, जापान और यूरोपीय देश भी इन पर काफी हद तक निर्भर हैं. ऐसे में अगर चीन सप्लाई रोक दे या एक्सपोर्ट पर नियंत्रण लगाए, तो इन देशों की टेक्नोलॉजी इंडस्ट्री चरमरा सकती है.
भारत में भी Rare Earth मेटल्स के भंडार हैं, लेकिन तकनीक और प्रोसेसिंग यूनिट्स की कमी के कारण हम इनका पूरा फायदा नहीं उठा पा रहे. भारत सरकार ने अब इस दिशा में तेजी दिखाई है और कुछ निजी कंपनियों को लाइसेंस देने की प्रक्रिया शुरू की है. लेकिन जब तक हम माइनिंग से लेकर प्रोसेसिंग तक की पूरी वैल्यू चेन खड़ी नहीं कर लेते, तब तक चीन की पकड़ बनी रहेगी.
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर Rare Earth को लेकर एक तरह की रणनीतिक रेस शुरू हो चुकी है. अमेरिका और यूरोप ने अपनी निर्भरता कम करने के लिए वैकल्पिक सप्लायर्स खोजने शुरू कर दिए हैं. भारत भी इसमें एक बड़ा खिलाड़ी बन सकता है, लेकिन इसके लिए निवेश, रिसर्च और सरकारी सहयोग की ज़रूरत होगी.
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