
बेगानों के लिए अपना जीवन समर्पण करने वाली, महिला दिवस पर इंदौर की 4 महिलाओं की कहानी
इन्दौर। एमवाय हॉस्पिटल (MY Hospital) में आग लगने के दौरान जान की बाजी (Bet) लगाकर कई बच्चों की जाने बचाने वाली लीना ठाकरे (Leena Thackeray) हों या फिर गोमाता से लेकर निराश्रित लोगों को पालने वाली निलम दुबे (Nilam Dubey) या लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार करवाने वाली सारिका दावरे (Sarika Davre) हों या इन्हीं तीनों की तरह थेलेसीमिया पीडि़त बच्चों के लिए रक्तदान करने का अभियान चलाने वाली डॉक्टर रुचि क्षोत्रिय (ruchi kshotriy) हों यह चारों महिलाएं समाजसेवा के जरिए सालों से शहर की आन, बान और शान की मिसाल बन चुकी हैं।

बेसहारा गोवंश और वृद्धों का सहारा
नीलम दुबे पति से तलाक के बाद अचानक बेसहारा हो गईं, मगर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपनी मजबूत इच्छाशक्ति के जरिए खुद बेसहारा गोवंश से लेकर निराश्रित बुजुर्गों का सहारा बन गईं। यह पिछले 14 सालों से समाजसेवा कर रही हैं। इनकी गोशाला में 50 गोमाता एव 10 नंदी तथा वृद्धाश्रम में 28 बुजुर्ग हैं, जिनमें से 20 वृद्ध माताएं एवं 10 बुजुर्ग दादा हैं।
शहर के बेसहारों की मां सारिका दावरे
शहर में सारिका दावरे की पहचान मानसिक रोगी, बेसहारा मरीजों की मां के साथ-साथ लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार करने वाली वारिस के रूप में बन चुकी है। पिछले कई सालों से महाकाल संस्था और सुल्तान-ए-इंदौर समिति के माध्यम से सडक़ों पर पड़ी बेसहारा लाशों का दाह संस्कार करती आ रही हैं। पति से तलाक होने के बाद मानसिक रोगी और लावारिस लाशों की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर दिया है।

थेलेसीमिया पीडि़तों की बड़ी बहन बन चुकी हैं डॉ. रुचि
पिछले 15 सालों से थेलेसीमिया और ब्लड कैंसर पीडि़त बच्चों के लिए रक्तदान अभियान में दिन-रात जुटी डॉक्टर रुचि क्षोत्रिय थेलेसीमिया पीडि़त बच्चों के परिवार का हिस्सा बन चुकी हैं। सारे बच्चे उन्हें बड़ी बहन, दीदी मां के संबोधन से बुलाते हैं। अपनी बीमार मां का इलाज कराते-कराते उन्होंने पीडि़तों को नया जीवन देने के लिए रक्तदान को समाजसेवा का जरिया बना लिया, जो आज तक जारी है। वह खुद 15 सालों से रक्तदान करती आई हैं और अब तक 47 बार रक्तदान कर चुकी हैं।
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