
डेस्क: बॉलीवुड (Bollywood) की दुनिया बाहर से जितनी रंगीन दिखती है, अंदर से उतनी ही अलग है. पर्दे पर तो हमें हीरो और हीरोइन दोनों बराबर दिखते हैं. कई बार तो फिल्मों में कैसे महिलाएं (Women) कैसे किसी पुरुष (Men) से कम नहीं, ये दिखाने वाले सीन भी शामिल किए जाते हैं. लेकिन क्या अपनी फिल्मों से स्त्री-पुरुष समानता सिखाने वाले बॉलीवुड में महिला और पुरुष एक्टर की कमाई भी बराबर है? महिला समानता दिवस (Women’s Equality Day) पर आइए इस पर बात करते हैं.
जब बात बॉलीवुड के सबसे बड़े एक्टर्स की आती है, तो उनके नाम पर ही फिल्में बिक जाती हैं. शाहरुख खान, सलमान खान, आमिर खान, और अक्षय कुमार जैसे सितारे एक फिल्म के लिए 100 करोड़ से 250 करोड़ रुपये तक लेते हैं. शाहरुख खान ने ‘पठान’ और ‘जवान’ जैसी हिट फिल्में देने के बाद अपनी फीस बहुत बढ़ा दी है. सलमान खान और अक्षय कुमार भी हर फिल्म के लिए 100 करोड़ से ज्यादा की फीस लेते हैं. रणबीर कपूर भी अब 70 करोड़ रुपये से ज़्यादा चार्ज करते हैं. ये सभी एक्टर अक्सर फिल्म के मुनाफे में भी हिस्सा लेते हैं, जिससे उनकी कमाई और भी ज्यादा हो जाती है.
दूसरी तरफ, हमारी टॉप हीरोइनें, जैसे दीपिका पादुकोण, आलिया भट्ट, कैटरीना कैफ, और करीना कपूर, हीरोज से बहुत कम पैसे कमाती हैं. दीपिका पादुकोण, जो आज सबसे महंगी हीरोइन हैं, एक फिल्म के लिए 15 से 20 करोड़ रुपये लेती हैं. आलिया भट्ट भी अपनी बेहतरीन एक्टिंग के लिए जानी जाती हैं, लेकिन उनकी फीस 10 से 20 करोड़ रुपये के बीच है, तो कैटरीना कैफ भी एक फिल्म के लिए 15 से 25 करोड़ रुपये लेती हैं. करीना कपूर की फीस 8 से 18 करोड़ रुपये के बीच है.
दरअसल पिछले कई सालों से सिर्फ बॉलीवुड ही नहीं बल्कि रीजनल सिनेमा में भी हमारी ज्यादातर बिग बजट फिल्में हीरोज पर ही बनती हैं. हीरो ही फिल्म का असली स्टार माना जाता है. आज भी फिल्म बनाने वाले मानते हैं कि हीरो की वजह से ही फिल्म ज़्यादा पैसा कमाएगी और इसलिए वे उन्हें ज़्यादा पैसे देने को तैयार होते हैं.
पुरुष और महिला एक्टर्स की फीस में नजर आने वाला ये बड़ा फर्क फिल्म इंडस्ट्री की उस गहरी सोच का नतीजा है, जो बॉलीवुड को आज भी जकड़े हुए है. सालों से ये इंडस्ट्री 60 प्रतिशत महिला एक्टर्स को सिर्फ सहायक किरदार या ग्लैमर से सजी गुड़िया के रूप में देखना चाहती है, उन्हें इस एक्ट्रेस की उस ताकत को देखना नहीं है जो बॉक्स ऑफिस पर भौकाल काट सकती है. अब धीरे-धीरे ये बदल रहा है. अब कुछ महिला-प्रधान फिल्में इस मिथक को तोड़ रही हैं, लेकिन ये लड़ाई अभी लंबी है. ये असमानता तब तक खत्म नहीं होगी, जब तक निर्माता और दर्शक दोनों ये नहीं समझ लेते कि कला और प्रतिभा का कोई लिंग नहीं होता.”
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