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मध्यप्रदेश उपचुनाव : दो साल बाद मप्र में फिर से पूर्ण बहुमत की सरकार

November 11, 2020

  • शिव-ज्योति की ताबड़तोड़ सभाओं और बूथ मैनजमेंट रहा प्रभावी
  • कांग्रेस कार्यालय में दोपहर बाद छाया सन्नाटा, भाजपा कार्यालय में देर रात तक मना जश्न

भोपाल। मप्र में एक बार फिर पूर्ण बहुमत की सरकार बन गई है। दो साल के सियासी उतार-चढ़ाव के बाद हुए उपचुनाव में 28 में से 19 सीटें जीतकर भाजपा 107 से 126 सीटों पर पहुंच गई जो बहुमत के आंकड़े 115 से 11 सीटें ज्यादा है। कांग्रेस को नौ सीटों पर जीत मिली है। उपचुनाव के स्पष्ट जनादेश से साफ है कि जनता ने शिवराज सिंह पर भरोसा दिखाया है। सीएम शिवराजसिंह चौहान और ज्योतिरादित्य सिंधिया की ताबड़तोड़ सभाओं और संगठन के बूथ मैनजमेंट से जीत मिली। भाजपा कार्यालय में जीत का जश्र देर रात तक मना। जबकि कांग्रेस कार्यालय में दोपहर बाद से ही सन्नाटा पसरने लगा। कांग्रेस सरकार का तख्ता पलट करने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया खेमे के उन्नीस में से 13 लोगों ने जीत दर्ज की। जबकि मंत्री इमरती देवी व गिर्राज दंडोतिया के साथ जसमंत जाटव, रणवीर जाटव, रघुराज कंसाना और मुन्नालाल गोयल हार गए। एक अन्य मंत्री एंदल सिंह कंसाना भी चुनाव हार गए हैं। खास बात यह भी है कि पूर्व मुख्यमंत्री व कांग्रेस नेता कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की जोड़ी का असर चंबल-ग्वालियर में ही दिखाई दिया। यहां की 16 सीटों में से सात पर कांग्रेस को जीत मिली। बाकी जगहों पर मुख्यमंत्री शिवराज-सिंधिया की जोड़ी चली। ग्वालियर-चंबल के बाहर की नौ सीटों पर 20 हजार से अधिक वोटों की हार-जीत हुई।

सिंधिया के 6 समर्थक हारे
सिंधिया ने जब पार्टी बदली, 22 विधायकों ने कांग्रेस छोड़ी थी। इनमें 19 सिंधिया समर्थक थे। तीन को भाजपा ने तोड़ा था। ये तीन थे- एदल सिंह कंसाना, बिसाहू लाल और हरदीप डंग। सिंधिया गुट के 19 में से 6 हारे। जीते तेरह। शिवराज गुट के 9 में से तीन हारे। जीते छह। 229 की मौजूदा क्षमता में बहुमत के लिए 115 चाहिए। सिंधिया गुट को छोड़ भाजपा अब 107+6=113 हो गई है। उसे 2 की ही जरूरत होगी। अन्य सात में से एक निर्दलीय और बसपा के दो विधायक भाजपा के पक्ष में हैं। बाक़ी भी विरोधी तो नहीं ही हैं। फिर भी सरकार सिंधिया गुट के बिना कम्फर्ट में नहीं रहेगी। यही वजह है कि सिंधिया का कद भाजपा में बढ़ गया है। अब अगले विस्तार में सिंधिया को केंद्र में मंत्री पद मिलने की संभावना भी बढ़ गई है। भाजपा सिंधिया के चेहरे का इस्तेमाल अन्य राज्यों में कर सकती है, क्योंकि मप्र में सरकार बनाकर चुनाव जीतने वाला फॉर्मूला कामयाब हो गया है। इसका पहला असर राजस्थान में हो सकता है।

मालवा-निमाड़ में बड़ा उलटफेर
मालवा-निमाड़ भाजपा का गढ़ माना जाता है। 2018 के चुनाव में उसे 66 में से सिर्फ 27 सीटें ही मिली थी। यानी 29 सीटों का नुकसान हुआ था। लेकिन उपचुनाव में यहां की 7 में से 6 सीटों पर भाजपा ने एक बार फिर कब्जा कर लिया है। मालवा की सांवेर, बदनावर, हाटपिपल्या, आगर व सुवासरा तथा निमाड़ की दो सीटों मांधाता, नेपानगर कांग्रेस से बागी हुए विधायकों के इस्तीफा देने के बाद खाली हुई थी। इनमें से एक सीट आगर को कांग्रेस के विपिन वानखेड़े ने जीती। यह सीट भाजपा विधायक मनोहर ऊंटवाल के निधन के बाद खाली हुई थी। उपचुनाव के दौरान इंदौर की सांवेर सीट को पूरे चुनाव के दौरान हॉट सीट माना गया। यहां से भाजपा के साथ तुलसी सिलावट की प्रतिष्ठा भी दांव पर थी। इस सीट पर सिंधिया के अलावा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस सीट को जीतने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। इसी का परिणाम है कि सिलावट ने बड़े अंतर से जीत हासिल की है। 2018 के चुनाव में वे राजेश सोनकर से मात्र 2945 वोट से जीते थे। इस बार उनके सामने कांग्रेस ने ताकतवर उम्मीदवार मानते हुए प्रेमचंद गुडडू को सिलावट के सामने उतारा था। सुवासरा सीट पर भाजपा के हरदीप सिंह डंग को एक बड़ी जीत मिली है। जबकि 2018 के चुनाव में डंग कांग्रेस से चुनाव लड़े थे और वे भाजपा के राधेश्याम पाटीदार से मात्र 350 सीट से जीत कर विधायक बने थे। इस बार उनका मुकाबला राकेश पाटीदार से हुआ था।

सिंधिया से ज्यादा दिग्गी का रहा होल्ड
मालवा-निमाड़ में सिंधिया से ज्यादा दिग्विजय सिंह का होल्ड रहा है। यही वजह है कि 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने 66 में से 35 सीटें जीती थी। 2013 की तुलना में भाजपा को 29 सीटें कम मिली थीं। उपचुनाव के जिस तरह के परिणाम आए हैं, उससे साफ है कि दिग्विजय की जमीन यहां खिसक गई है। सिंधिया के प्रभाव वाली केवल एक सीट सांवेर है।

यहां सिर्फ शिवराज ही चेहरा था
मालवा-निमाड़ में भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री कैलाश विजयवर्गीय बड़े और कद्दावर नेता हैं, लेकिन चुनाव में चेहरा शिवराज सिंह चौहान ही थे। चुनाव के दौरान इस इलाके में दिग्विजय सिंह ज्यादा सक्रिय नहीं रहे। केवल कमलनाथ ही यहां कांग्रेस का चेहरा था।

पराजय के साथ ही कांग्रेस में बजा बगावत का बिगुल
उपचुनाव में हार के साथ ही कांग्रेस में बगावत के बिगुल बज गया है। अभी मुखर विरोध नहीं हुआ है, लेकिन बगावती तेवरों की शुस्र्आत हो गई है। कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अस्र्ण यादव के बयान से इसे समझा जा सकता है। पार्टी में अब बुजुर्ग पीढ़ी की जगह युवा नेतृत्व को संगठन की कमान सौंपने का दबाव बढ़ेगा। नतीजों को लेकर यादव ने कहा कि उपचुनाव में बिकाऊ नहीं, टिकाऊ चाहिए का कांग्रेस का नारा काम नहीं आया। जो सीटें हाथ से निकली हैं, वहां नए सिरे से मेहनत की जाएगी। यह भी उल्लेखनीय है कि यादव भोपाल में ही थे, लेकिन वे प्रदेश कार्यालय नहीं गए। मालूम हो, उपचुनाव के प्रचार के दौरान पूर्व मुख्यमंत्री कमल नाथ ने इमरती देवी को लेकर जो अपशब्द कहे थे, उसे पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए बयान से असहमति जताई थी। इसके बाद भी कमल नाथ अपने खेद जताने वाले बयान पर कायम रहे और उन्होंने माफी नहीं मांगी। इससे यह संकेत गया कि पार्टी का प्रदेश नेतृत्व राहुल की बात को दरकिनार कर अपनी मर्जी से काम कर रहा है। कमल नाथ के बयान पर बवाल मचने के बाद प्रियंका गांधी वाड्रा का मध्य प्रदेश दौरा पार्टी ने रद कर दिया था। अब माना जा रहा है कि पार्टी राहुल की लाइन पर आगे बढ़ेगी और युवाओं को संगठन की कमान सौंपी जा सकती है।

मतदाताओं को न कर्जमाफी रास आई, न सौदेबाजी के आरोप
प्रदेश के सत्ता का भविष्य तय करने वाले 28 विधानसभा सीटों के उपचुनाव के नतीजों ने साफ कर दिया कि उसे न तो कमल नाथ सरकार की कर्जमाफी आकर्षित कर सकी और न ही सौदेबाजी के आरोप पसंद आए। अधिकांश सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार को करारी हार का सामना करना पड़ा है। जनता को न तो पार्टी की आक्रामक रणनीति स्वीकार हुई और न ही संगठन टीम भाजपा के आगे टिक सका। मैदानी मोर्चे पर न तो युवा कांग्रेस नजर आई और न ही छात्र इकाई (एनएसयूआई)। महिला कांग्रेस सहित अन्य प्रकोष्ठों की भूमिका भी नगण्य रही। प्रत्याशियों का भी प्रचार अभियान बिखरा-बिखरा रहा। माना जा रहा है कि चुनाव परिणामों का असर संगठन पर भी पड़ेगा और अब परिवर्तन की आवाज बुलंद होगी। उपचुनाव में जीत हासिल करने के लिए कांग्रेस ने कर्जमाफी के साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया सहित कांग्रेस छोड़कर भाजपा में गए विधायकों की सौदेबाजी को मुख्य मुद्दा बनाया था। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमल नाथ, पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह से लेकर कांग्रेस के तमाम नेता इन मुद्दों के ईद-गिर्द ही चुनाव अभियान को केंद्रित रखे रहे। कर्जमाफी को लेकर तमाम प्रमाण भी प्रस्तुत किए पर जनता ने इसे नकार दिया। वहीं, सौदेबाजी, बिकाऊ-टिकाऊ के आरोप, गद्दारी के रेट कार्ड जारी करना भी पसंद नहीं आया। पहली बार मतदान केंद्र स्तर पर तैयारियां की गई थी लेकिन टीम भाजपा के आगे यह टिक नहीं सकी।

कमल नाथ के हाथ में थे पूरे सूत्र
उपचुनाव के सारे सूत्र पूर्व मुख्यमंत्री कमल नाथ के हाथ में थे। उन्होंने ही सर्वे के माध्यम से प्रत्याशी चयन किया और चुनाव अभियान की रणनीति को अंतिम रूप दिया। चुनाव प्रबंधन और अभियान समिति के नाम पर कुछ नहीं हुआ। सभी विधानसभा क्षेत्रों के अलग-अलग वचन पत्र बनाए गए पर इनमें कोई आकर्षण नहीं रहा। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने परदे के पीछे से भूमिका निभाई पर वह 2018 के विधानसभा जैसी नहीं थी। पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह, पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव और कांतिलाल भूरिया भी दौरे किए पर वे असरदार साबित नहीं हुए।

कांग्रेस संगठन बिखरा-बिखरा नजर आया
पूरे चुनाव में न तो युवा कांग्रेस कहीं नजर आई और न ही छात्र इकाई (एनएसयूआई)। महिला कांग्रेस, अनुसूचित जाति-जनजाति विभाग की भी प्रभावी भूमिका नहीं रही। सूत्रों का कहना है कि संगठन में बदलाव की जो बात अभी दबे स्वर में सुनाई थी वो अब खुलकर सामने आएगी। पार्टी में एक व्यक्ति, एक पद की बात फिर उठ सकती है। अभी कमल नाथ प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष भी हैं। उपचुनाव के मीडिया प्रभारी केके मिश्रा का कहना है कि परिणामों की समीक्षा की जाएगी। जनमानस भाजपा के खिलाफ था। कमल नाथ की अगुआई में पार्टी ने पूरी एकजुटता के साथ अपनी बात मतदाताओं तक पहुंचाने का प्रयास किया। इसमें कमी कहां रह गई, यह समीक्षा के बाद सामने आएगा।

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