आओ वसंत…लहको, महको और महकाओ दिग्दिगंत

– हृदयनारायण दीक्षित

ऋतुराज वसंत आ गए। सुस्वागतम! आओ वसंत। लहको, महको, महकाओ। दिग्दिगंत। भारतीय सौन्दर्यबोध के ऋतुराज को नमस्कार है। प्रकृति आपकी प्रियतमा है। वह अधीर प्रतीक्षा में थी। प्रकृति ने अपने अरूण तरूण अंग खोले। रूप रूप प्रतिरूप और बहुरूप सौन्दर्य चरम परम होते गये। अपना सारा रूप रस गंध उड़ेल दिया उसने। कलियां चटकीं, फूल खिले। वायु गंध आपूरित हैं। अनेक छन्दों में स्तुतियां है। ऋग्वेद का प्रख्यात छन्द गायत्री और साम का ‘वृहत्साम’। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इन्हीं दोनो छन्दों में अपनी व्याप्ति बताई थी और अंत में कहा था-ऋतुओं में मैं वसंत हूं। प्रकृति वसंत की अगवानी में पुलकित है। अपनी वीणा के तार छेड़ चुकी है। प्रकृति का सृजन मधुमय और रसमय है। सोम ओम की प्राकृतिक मस्ती है। रस रस प्रीति। रस घनत्व से धरती अंतरिक्ष आच्छादित हैं। लेकिन भारत के कुछ लोग विदेशी वेलेन्टाइनी शीर्षासन में हैं। वे ऋतुराज और प्रकृति का प्रेम रस छोड़कर विदेशी वेलेन्टाइनी मुद्रा में हैं। श्लील अश्लील हो रहा है। वसंत उनके लिए बस-अंत है।

वसंत बौद्धिक समस्या भी है। प्रश्न है कि विश्व मानवता से वसंत का प्रथम परिचय कब हुआ? प्रकृति के हरेक जीव को मदमस्त करने वाले ऋतुराज कब पहचाने गये? ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम अभिलेख है। यहां सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को पुरुष रूप में कल्पित किया गया हैझारों सिर और हजारों पैरों वाला यह पुरुष मजेदार है। यह पुरुष समय का अतिक्रमण करता है। ऋषि के अनुसार जो हो चुका है और जो होगा वह सब पुरुष ही है। इसके एक भाग में यह विश्व है शेष तीन भाग अनंत दिव्यलोक हैं। यह ब्रह्माण्ड से भी विराट है।” सृष्टि सृजन एक पवित्र यज्ञ है। इसी सूक्त में कहते हैं ”सृजन यज्ञ में यही पुरुष हवि (अग्नि में अर्पित सामग्री) बना और वसंत बना घृत-वसन्तो अस्यासी दाज्यं।” वसंत ऋग्वेद में है। इतना तय है कि वसंत ऋग्वेद के पुरुष सूक्त से प्राचीन है। पुरुष गहन दार्शनिक अनुभूति है। भारत की वसंत अनुभूति अतिपुरातन है। इसका मुख्य कारण है-प्रकृति के प्रति हमारे पूर्वजों की गहन प्रीति। इस प्रीति का कारण रूपों को ध्यान से देखने की द्रष्टा प्रवृत्ति है। द्रष्टाभाव से उगे सौन्दर्यबोध का चरम परम वसंत है।

प्रकृति के रूप रम्य हैं। भारतीय द्रष्टा भाव और भी रम्य है। ऋग्वेद के ऋषि को वसंत सृजन यज्ञ कार्य में घी जैसा जान पड़ता है। वसंत भावोत्तेजक है। घी वैदिक ऋषियों का प्रिय रस है। रस का सम्बंध स्वाद से है। जिह्वा रस लेती है इसीलिए वह रसना है। ऋषियों के भावबोध में अग्नि घृत प्रिय हैं। अग्नि की अन्य अनेक विशेषताएं भी हैं। सबसे मजेदार बात है कि वे कवि भी हैं और उनकी जीभ मधुमती है। ऋषि स्वयं कवि हैं स्वाभाविक ही उनके प्रिय देवता भी कवि हैं। प्रकृति को देखने के लिए गीता वाले दिव्य चक्षु की जरूरत नहीं पड़ती। कृष्ण ने अर्जुन को विराट रूप दिखाने के पहले दिव्य चक्षु दिए थे।

प्रकृति और हम अंगांगी हैं। हम प्रकृति में हैं, प्रकृति के हैं और प्रकृृति हम में हैं। हम सब मधुप्रिय हैं। ऋषि भी मधुप्रिय हैं। वे प्रकृति के सभी रूपों को मधुमय देखने के अभिलाषी हैं। बार-बार गुनगुनाने लायक एक मंत्र (ऋ0 1.90) में कहते हैं ”हवाएं मधु आपूरित हों। प्रकृति चक्र मधुमय हो। नदियों के जल मधुमय हों। औषधियां, वनस्पतियां मधुर हों। पृथ्वी की धूलि और सूर्य की किरणें भी मधुर हों।” वसंत मधु अनुभूति का दर्शन दिग्दर्शन है। ऋग्वेद और उसके पहले से ही यह अनुभूति लोकजीवन को रस आपूरित करती आई हैं। रस का यह स्रोत कभी रीता नहीं हुआ। तैत्तिरीय ब्राह्मण में वसंत आगमन पर देवता भी आनंदमगन बताए गये हैं।

माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी वसंत स्वागत की मुहूर्त है। यही वाग्देवी सरस्वती के उदय होने की वेला है। भारतीय प्रज्ञा की आराध्य हैं सरस्वती। वे हंसवाहिनी हैं। वीणावादिनी हैं। ऋग्वेद व अथर्ववेद में वे एक नदी हैं। ऋग्वेद के ऋषियों की नदीतमा। उन्हीं की गोद में और उनका जल रस पीते भारतीय दर्शन ने अपनी काया और कान्ति पाई। इन्हीं के तट पर गायत्री जैसे अनेक मंत्र उगे। वैदिक ऋषियों ने सरस्वती को मां जाना। यहीं यज्ञ चले, यज्ञ अग्नि से साक्षात्कार हुए ऋषियों के। सरस्वती पुत्रों को ‘भरतजन’ नाम मिला सरस्वती तट पर। यहीं इसी तट पर अग्निधर्मा सत्य अभीप्सा ‘भारत’ कहलाई-तस्माद् अर्गि्नभारत। फिर यही सरस्वती नदी रूप में विलुप्त हो गयीं। वैलेन्टाइनी सरस्वती को कल्पना मानते थे। अब सरस्वती का अस्तित्व सिद्ध हो चुका है। सरस्वती ने भारत के मन को नीर-क्षीर विवेकी बनाया। वाग्देवी सरस्वती विवेक की अधिष्ठात्री बनी। वसंत की मस्ती में विवेक का अनुशासन जरूरी है। सोम मस्ती है और ओम् जागरण। परम्परा में दोनो हैं। वसंत के साथ सरस्वती का भी उगना सकारण है। वसंत अप्रतिम सौन्दर्यबोध है तो सरस्वती अप्रतिम आत्मबोध। जगत् में रस आपूरण है। इस रस का अजर अमर और अक्षय रस स्रोत महारस है। तैत्तिरीय के ऋषि ने उसे ‘रसो वे सः’ गाया है।

वसंत वैदिक मंत्रों में है। परवर्ती साहित्य में है। कालिदास के सृजन में प्रकृति की यह तरुणाई मोहक है। हिरणी हिरण की पीठ सींग से खुजलाती है। वसंत विह्वल नायिका इरावती नायक अग्निमित्र को पुष्प गुच्छ भेजती है। तुलसीदास संत थे। वसंत ने उन्हें भी नहीं छोड़ा। तुलसी की अनुभूति में वसंत प्रभाव मुर्दो को भी हिला देता है-”जागे मनोभव मुएंहु मन वन सुभगता न परे कही।” श्रीराम मंगल भवन हैं, अमंगलहारी हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम भी हैं। लेकिन कविता में वे भी वसंत खेलते हैं-खेलत वसंत राजाधिराज। सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला हमारे गांव के पड़ोस के। उनकी वसंत अनुभूति का क्या कहना? गाया है ”वर्ण गंध धर मधुमरन्द भर तरू-उर की अरूणिमा तरूणतर।” कालिदास, जैसी वसंत अनुभूति को आज हम सोच भी नहीं सकते। निराला के पड़ोसी होकर भी हम लोग वसंत रस का स्वाद नहीं पाते। क्या करें? सोशल नेटवर्किंग में वसंत गंध की कोई जगह नहीं। चैटिंग का बतरस है। बात का बतंगड़ है। अब ”सखि वसंत आया” जैसी शब्द धुन की फिक्र किसको है।

वसंत हमारी सांस्कृतिक अनुभूति भी है। आस्था नही, देखी जांची, परखी प्रत्यक्ष सांस्कृतिक संपदा। प्रकृति छन्दबद्ध है। अराजक नहीं। प्रकृति नियम आबद्ध है। वैदिक ऋषियों ने प्रकृति की नियमबद्धता और छन्दस्। गति को ‘ऋत’ कहा है। ऋत अन्तस् प्रवाह है और ऋतु इसी छन्दबद्ध प्रवाह का चेहरा। गतिशील जगत् में ऋत के कारण परिवर्तन आते हैं। भारत में मोटे तौर पर 6 ऋतुएं हैं। लेकिन मस्त वसंत ऋतुराज हैं। वसंत स्वयं मस्त है, मस्ती देते भी हैं। वे ऐसे वैसे मनमोहन नहीं हैं। वे जैसे मनमोहन हैं, प्रकृति के हरेक अंग को वैसी ही मनमोहन तरंग से भर देते हैं। वे सृष्टि के सभी घटकों को नृत्य तरंग और उमंग देते हैं। वसंत भारतीय लोकजीवन का उल्लास हैं। शुद्ध भौतिक लेकिन रस आपूरण में परिपूर्ण आध्यात्मिक भी। वसंत सनातन हैं, पुरातन हैं और हर बरस नित नए भी हैं। प्रज्ञा और मस्ती के परम्परा प्रवाह को गति देते हैं। शुभकामना है कि यह वसंत आप सबको नवउमंग और नवतरंग के उल्लास से भरे।

(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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