नेताओं के बीच मतभेद, वोट ट्रांसफर करवाना बड़ी चुनौती; UP-बिहार से दिल्ली तक मुश्किलों में INDIA गठबंधन

नई दिल्‍ली (New Delhi)। इंडिया गठबंधन(india alliance) के घटक दलों के बीट में जिन राज्यों में समझौता (agreement among states)हुआ है वहां जमीन पर नेताओं (leaders on the ground)के बीच आपसी मतभेद कम करना और कार्यकर्ताओं(workers) में समन्वय बनाकर वोट ट्रांसफर (vote transfer)कराने की चुनौती(challenge) बनी हुई है। लिहाजा जमीनी स्तर पर तालमेल के लिए समन्वय समिति बनाकर काम बांटने और कार्यकर्ताओं को संयुक्त रूप से मोबलाइज करने पर बात चल रही है। खासतौर पर दिल्ली, यूपी और बिहार जैसे राज्यों में गठबंधन के साथी दलों को अपना वोट ट्रांसफर करवाना बड़ी चुनौती है ।

दिल्ली में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच गठबंधन का कांग्रेस की स्थानीय इकाई पुरज़ोर विरोध कर रही थी। लेकिन बड़े लक्ष्य का हवाला देकर गठबंधन हो गया। रामलीला मैदान में हुई साझा रैली से दोनों दलों के कार्यकर्ताओं के बीच साफ़ मैसेज भी चला गया। ख़ासतौर पर जिस तरह से सोनिया गांधी ने सुनीता केजरीवाल से आत्मीयता दिखाई उससे ज़मीनी केडर के बीच संशय की गुंजाइश नहीं रह गई है। लेकिन अभी भी उम्मीदवारों के पक्ष में स्थानीय नेताओं के बीच समन्वय बनाना और बूथ स्तर तक तालमेल की रणनीति नहीं बन पाई है। माना जा रहा है कि कांग्रेस उम्मीदवार का फ़ैसला होते ही ज़मीनी स्तर पर समन्वय पर काम की अंतिम रूप दे दिया जाएगा।

इसी तरह से बिहार में कई सीटों पर भ्रम की स्थिति के चलते समन्वय समिति की आवश्यकता महसूस की जा रही है। एक नेता ने कहा कि निचले स्तर तक भ्रम दूर करके तालमेल नहीं बना तो वोट ट्रांसफ़र करा पाना मुश्किल होगा। करीब आधा दर्जन सीटों पर भ्रम दूर करने के साथ अन्य सभी जगहों पर स्पष्ट संदेश के साथ साझा समिति बनाकर जिम्मेदारी तय करने पर बात हो रही है।

सपा और कांग्रेस के लिए असली चुनौती प्रचार अभियान

इसी तरह उत्तर प्रदेश में भी समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच गठबंधन हो गया है। लेकिन पुराने कड़वे अनुभव को देखते हुए यहाँ भी सपा और कांग्रेस के लिए असली चुनौती प्रचार अभियान के लिए जमीन पर समन्वय सुनिश्चित करना और लोकसभा चुनाव में एक-दूसरे को वोट ट्रांसफर कराना होगा। स्थानीय नेताओं का कहना है कि उन्हें अभी तक शीर्ष से कोई निर्देश नहीं मिले हैं कि गठबंधन जमीन पर कैसे काम करेगा। हालाँकि कुछ जगहों पर सपा नेताओं ने कांग्रेस के जिला कार्यालय का दौरा किया और स्थानीय स्तर पर व्यवस्था बनाने की क़वायद शुरू की है। लेकिन इसे संगठित रूप से व्यवस्थित करने की माँग की जा रही है। जिससे संयुक्त रूप से दोनों दलों के कार्यकर्ता काम कर सकें।

वोट ट्रांसफ़र कराना कभी आसान नहीं रहा

जानकारों का कहना है कि एक दल का वोट बैंक माने जाने वाले वोटर का दूसरे दल के लिए वोट ट्रांसफ़र कराना हमेशा टेढ़ी खीर और अबूझ पहेली जैसा रहा है। नेता की विश्वसनीयता , माहौल और ज़मीन पर समन्वय सहित उम्मीदवारों का चयन जैसे कई फैक्टर वोट ट्रांसफ़र की रणनीति में काम करते हैं।

वर्ष 2017 में सपा और कांग्रेस के बीच गठबंधन तो था लेकिन उनकी स्थानीय इकाइयों ने एक दूसरे से किनारा कर लिया। अब इस चुनौती को दूर करने और किसी भी भ्रम से बचने के लिए एक-दूसरे के साथ तालमेल सुनिश्चित करने के लिए नेता एक दूसरे से मुलाकात कर रहे हैं। हालांकि स्थानीय नेताओं में अभी भी कुछ भ्रम बना हुआ है। काम के बंटवारे को लेकर भ्रम की स्थिति है।

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अगर यूपी को देखें तो यहां पिछले दस साल के दौरान विधानसभा या लोकसभा चुनाव में छोटे दलों का वोट आसानी से बीजेपी को ट्रांसफर होता रहा है। हालांकि घोसी उपचुनाव में ऐसा नहीं हो पाया था।

भाजपा को 8 प्रतिशत का फायदा

बीजेपी पूर्वांचल में एमवाई फैक्टर और पश्चिम में मुस्लिम-दलित-जाट के किसी भी संभावित समीकरण को ध्वस्त करती दिखी। दूसरी तरफ जानकारों का मानना है कि वोट ट्रांसफ़र की क्षमता में कमी की वजह से ही शायद अखिलेश आरएलडी को साथ नहीं रख पाए। 2019 के लोकसभा और 2017 के यूपी विधानसभा चुनावों के बीच वोट शेयर की तुलना से पता चलता है कि इस साल जहां बीजेपी का वोट शेयर 8% बढ़ गया, वहीं एसपी, बीएसपी और आरएलडी , कांग्रेस के लिए यह काफी कम हो गया, जिन्होंने चुनाव पूर्व गठबंधन किया था। इसे वोट ट्रांसफर सही तरीके से नहीं हो पाने से जोड़ा गया।

बीजेपी का वोट शेयर 2017 के चुनावों में 41.57% से बढ़कर 49.6% हो गया। अपना दल के साथ, भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने अपने वोट शेयर में लगभग 51% की वृद्धि देखी। जबकि 2019 में 38 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने वाली बसपा को 19.5% वोट मिले और 10 सीटें जीतीं लेकिन उसका वोट शेयर 2017 के चुनावों की तुलना में लगभग तीन प्रतिशत कम था जब उसे 22% से अधिक वोट मिले थे।

वर्ष 2017 की तुलना में वर्ष 2019 में सपा के मत प्रतिशत में क़रीब दस फ़ीसदी की कमी आई और 28 फ़ीसदी से 18 फ़ीसदी पर पहुँचकर वह महज़ पाँच सीटों पर चुनाव जीती। इस चुनाव में आरएलडी की भी दलित और मुस्लिम वोट ट्रांसफ़र की उम्मीद परवान नहीं चढ़ी और उसका मत प्रतिशत भी2 .89 प्रतिशत से गिरकर 1.67 फ़ीसदी तक पहुँच गया। कांग्रेस का वोट प्रतिशत वर्ष 2017 के चुनाव में 22.09 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2019 में 6.31 प्रतिशत रह गया। कांग्रेस लोकसभा चुनाव में यहाँ केवल एक सीट जीत पाई। जानकारों का कहना है कि वोट ट्रांसफ़र कराना कई फैक्टर पर निर्भर करता है और ज़मीन पर कब कौन सा फैक्टर काम करेगा इसका निश्चित फार्मूला नहीं है।

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