अमेरिका और चीन के बीच तनाव से निवेशकों की भारत पर निगाहें

– ललित मोहन बंसल

चीन ने घरेलू जरूरतों की पूर्ति के बावजूद अंतरराष्ट्रीय पर एक सुदृढ़ सप्लाई लाइन से वैश्विक मुद्रा अमेरिकी डालर में कमाई की है। आज वह सूई से लेकर ड्रोन और मिसाइल तक निर्यात करने की क्षमता रखता है। चीन के सम्मुख आज दिक्कत यह है कि कोविड की मार से विश्व इकॉनमी में शिथिलता आ गई है। रही सही कसर अमेरिका ने पूरी कर दी है। अमेरिका और चीन के बीच शीत युद्ध के कारण ट्रम्प प्रशासन ने चीन के आयातित माल पर कंट्रोल और टैरिफ में वृद्धि की थी, उसे बाइडन प्रशासन भी कम करने के मूड में नहीं है। इससे चीन के कल कारखाने बंद हो रहे हैं, बेरोजगारी चरम सीमा पर है और अमेरिकी निवेशकों की निगाहें भारत सहित पड़ोसी देशों पर लगी हैं।

भारत और चीन के बीच व्यापार बढ़ा है। इसमें भारत को पिछले वर्ष एक सौ अरब डालर की चपत लगी है तो अमेरिका ने चीन से आयात में कटौती कर उसे करीब ढाई सौ अरब डालर सालाना की चपत दे दी है। यूक्रेन युद्ध से चीन, रूस, अमेरिका सहित यूरोपीय इकॉनमी मंदी की चपेट में हैं। इस बीच भारत ही एकमात्र देश ऐसा है, जिसकी ग्रोथ बढ़ी है, मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरकार ने एक तटस्थ राष्ट्र के रूप में रूस से सस्ती दरों पर कच्चा तेल खरीद कर अरबों डालर की बचत की है, तो अपने गेहूं, चावल और अन्यान्य खाद्यान के निर्यात पर समय रहते प्रतिबंध लगा कर मंदी पर अंकुश लगाया है। इससे भारत डालर में बचत कर विश्व इकॉनमी में पांचवें पायदान पर आ गया है, तो मंदी से भी देश को राहत दिलाई है। यह सच है, रूसी सप्लाई लाइन में अड़चन से विश्व इकॉनमी को झटके लगे हैं। इससे चीन तिलमिलाया हुआ है।

अमेरिका में अगले वर्ष नवम्बर में राष्ट्रपति के चुनाव होने हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन सुपर सिटिजन की स्टेज में पहुंचने के बावजूद मजबूती से खड़े हैं। कयास लगाए जा रहे हैं कि बाइडन और पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प दोबारा आमने-सामने होंगे। एक लिबरल और डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति के रूप में जो बाइडन ने स्टिक और कैरेट की नीति को तिलांजलि दी है। भारत से सम्बंध सुधारते हुए रक्षा साजो सामान के उत्पादन, प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उच्च स्तर की भागीदारी तथा द्विपक्षीय ट्रेड में नए आयाम स्थापित करने के लिए ढेरों द्विपक्षीय समझौते किए हैं। इससे अमेरिका और भारत के बीच सम्बंध प्रगाढ़ होंगे। इससे चीन को ठेस पहुंची है।

चीन की विस्तारवादी नीतियों, प्रशांत क्षेत्र में निर्बाध और मुक्त व्यापार तथा दक्षिण चीन सागर में चीन की नौसेना के लड़ाकू और टोही विमानों की मौजूदगी से सागरतटीय देशों फिलिपींस, जापान, आस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया, वियतनाम आदि देशों में असुरक्षा की भावना उपजी है। अमेरिका ने भू-राजनैतिक दृष्टि से भारत से मित्रता का हाथ बढ़ाया है। अमेरिका के नेतृत्व में भारत, जापान और आस्ट्रेलिया चार देशों की नौ सेना “कवाड” के जरिए सागर तटीय क्षेत्रों में गश्त बढ़ाई है। इस कवाड को लेकर चीन हताश-निराश है। चीन ने इस कवाड को एक मिनी नाटो के नाम से निंदा की है।

अमेरिका और भारत के बीच ट्रेड और निवेश सम्बन्धी रिश्तों के बाद चीन में हाशिये पर बैठे अमेरिकी उद्यमी सस्ते श्रम और बिजली पानी की दरकार में भारत पर निगाहें लगाए हुए हैं। एपल के बाद माइक्रोन, गुगुल सहित विमानिक के क्षेत्र में अमेरिकी कम्पनियों ने हाथ बढ़ाए हैं तो एलन मस्क ने अगले वर्ष तक टेस्ला कार निर्माण की सम्भावना जगाने का आश्वासन दिया है। एक ग्लोबल लीडर के रूप में ख्यात नरेन्द्र मोदी से अपेक्षाएं बढ़ गई हैं। अमेरिकी मीडिया में कहा जा रहा है कि अमेरिकी कम्पनियां निवेश से पूर्व निश्चित तौर पर अगले वर्ष भारत में होने वाले चुनाव तक प्रतीक्षा करेंगी। इन्हें लगता है कि केंद्र में सत्तारूढ़ एक पार्टी की सरकार आती है, तो अमेरिकी निवेश को भारत के द्वार तक लाना सहज होगा।

बाइडन का इस समय प्रशासन और पार्टी पर पूर्ण नियंत्रण है। इसके बावजूद उन्होंने अपने सहयोगी वाम मार्गी और मध्य मार्गियों के आग्रह पर चीन से तनाव में कमी के लिए पहले विदेश मंत्री एंथनी ब्लिंकेन और फिर वित्त मंत्री जेनेत एलन को बीजिंग भेजा है। इसे बाइडन के अनुभवी राजनेता के रूप चित्रित किया जा रहा है। इसे चुनाव पूर्व अमेरिका और चीन में तनाव में कमी लाने के लिए परस्पर बातचीत और राजनयिक वार्ता को जरूरी बताया जा रहा है। इन यात्राओं का चीन के राष्ट्रपति शी जिनफिंग की ‘ताइवानी सोच’ पर कितना अंतर पड़ेगा, नहीं कुछ कहा जा सकता। इसके बावजूद एक वर्ग विशेष इन यात्राओं में सम्भावनाएं ही तलाश रहे हैं। असल में दोनों ही पक्षों की ओर से घाव इतने गहरे दिए गए हैं कि इन पर राजनयिक मरहम का जल्दी असर होता दिखाई नहीं पड़ता।

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में शीर्षस्थ शी का लक्ष्य एकदम सीधा और सपाट है। वह ‘वन चाइना पालिसी’ के तहत ताइवान को मेनलैंड चाइना का एक हिस्सा मानते हैं। वह ताइवान के अंदरूनी मामलों में अमेरिका ही नहीं, दुनिया के किसी को हस्तक्षेप की इजाजत नहीं देना चाहते। अमेरिका की प्रतिनिधि सभा की स्पीकर और तीसरे बड़े ओहदेदार के रूप में नैन्सी पेलोसी की ताइवान यात्रा और डेमोक्रेसी के नाम पर ताइवान को हथियारों का जखीरा देने के आश्वासन नाम से क्षुब्ध है। इधर अमेरिका भी ताइवान में जनता की चुनी हुई सरकार और डेमोक्रेसी के बचाव में साम दाम दंड भेद से पूरी तरह सजग हैं।

ब्लिंकेन के दौरे का असर इतना ही पड़ा कि चीन के राजनयिक गलियारों में कुछ कुछ नमी देखी गई है। चतुर और अनुभवी ब्लिंकेन चीनी नेताओं पर अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे हैं और इसीलिए ब्लिंकन की शी से सौहार्द पूर्ण माहौल में पारस्परिक तनाव के मुद्दों पर उचस्तरीय बात हो सकी।

फ्ड रिजर्व की पूर्व चेयरपर्सन जेनेट एलन प्रोफेशनल हैं। वह बातों को दाएं बाएं घुमाने की बजाए सीधे विषय पर बात करने में सिद्धस्त हैं। उन्होंने बीजिंग पहुंचते ही साफ-साफ शब्दों में कह दिया कि वह राष्ट्रहितों की कीमत पर कोई समझौता करने को तैयार नहीं है। उन्होंने यह भी कह दिया कि चीन से निष्कंटक निर्यात और आयातित माल पर अधिभार को हटाने अथवा उसमें कमी लाए जाने पर कोई समझौता नहीं होगा। इधर चीनी नेताओं की माने तो फिर जेनेट के चीन दौरे का कोई माने नहीं है।

भारत और चीन के बीच सीमा विवाद को लेकर पिछले कुछ अरसे से तनाव व्याप्त है। इसके बावजूद चीन के साथ अंतरराष्ट्रीय व्यापार में वृद्धि हो रही है। चीन ने भारतीय मंडी में इलेक्ट्रॉनिक, आर्गेनिक केमिकल, फार्मा, बिजली साजो सामान तथा खिलौने और वेशभूषा आदि में सस्ते से सस्ता सामान झोंक कर भारतीय उद्योग को क्षति पहुंचाई है। इसमें भारत सरकार को अमेरिकी सरकार की तर्ज पर आयात में नियंत्रण और चीन के माल पर अधिभार लगाना होगा। भारतीय उपभोक्ताओं को अतिरिक्त अधिभार से थोड़ी तकलीफ होगी, पर यह निर्णय देश हित में होगा। इससे बंद पड़े उद्योग शुरू होंगे, रोजगार में इजाफा होगा।

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