भारत में शिक्षा की सीमाएं और संभावनाएं

– गिरीश्वर मिश्र

अमृत महोत्सव के बाद के अगले पच्चीस वर्ष के ‘अमृत काल’ की अवधि में एक नए भारत (न्यू इंडिया!) के स्वप्न को साकार करने के लिए देश का आवाह्न एक ऐतिहासिक परिवर्तन की सोच है, जो समाज को आगे की चुनौतियों का सामना करते हुए विकास का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। इसके लिए सबसे अधिक और मूलभूत जरूरत है (सु)शिक्षित समाज के निर्माण की है। यह इसलिए और भी जरूरी हो जाता है क्योंकि अनुमान है कि इस बीच भारत की आधी जनसंख्या तीस वर्ष की आयु के नीचे वाली होने जा रही है। सक्रियता, उत्साह और उत्पादकता की दृष्टि से यह आयु वर्ग निश्चय ही अत्यधिक महत्व का होता है। इस तरह अमृत-काल एक निर्णायक दौर होने जा रहा है जिसे अवसर में बदलने के लिए शिक्षा को ठीक रास्ते पर लाना होगा। सिर्फ गुणात्मक सुधार ही इसका एकमात्र उपाय है।

वर्तमान व्यवस्था को लेकर लम्बे समय से व्याप्त जन-असंतोष तभी दूर होगा यदि हम ज्ञान और कौशल दोनों ही दृष्टियों से अच्छी शिक्षा व्यवस्था स्थापित कर पाएंगे। शायद इसी मनोभाव से केन्द्रीय सरकार पिछले कार्यकाल से शुरू कर लगातार शिक्षा के एजेंडे पर कार्य कर रही है। युवा वर्ग की महत्वाकांक्षा और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर इस पर वरीयता पूर्वक काम करने की जरूरत है।

भारत के लिए शिक्षा कैसी हो और वह किस तरह के संस्थागत विधान के तहत दी जाय, इन सवालों को लेकर पूरे देश में पिछले कई सालों से गहन मंथन का दौर चलता रहा है। इससे उपजी शिक्षानीति-2020 शिक्षा की पूरी पारिस्थतिकी को सम्बोधित करती है। विशाल भारत में शिक्षा की उपलब्धता अर्थात उस तक पहुँच को समता, समानता और गुणवत्ता के साथ तय करना निश्चय ही एक बड़ा लक्ष्य है। अब धीरे-धीरे यह स्पष्ट हो चला है कि सरकार इसके लिए प्रतिबद्ध है।

एक स्तर पर रूप-रेखा का मोटा ढांचा उपलब्ध कराया गया है। विश्वविद्यालय और इसी तरह की अन्य नियामक संस्थाएं उसके हिसाब से तैयारी करने में भी जुट गई हैं। उदाहरण के लिए चार वर्ष के स्नातक स्तर के पाठ्यक्रम में तब्दीली लाने के लिए काम शुरू हो गया है, कई विश्वविद्यालय अपने प्रावधानों के अंतर्गत नए पाठ्यक्रम अंगीकृत भी कर रहे हैं। बहु-विषयी (मल्टी-डिसिप्लिनरी) और अंतर-विषयी (इंटर-डिसिप्लिनरी) दृष्टिकोण की ओर रुझान इन नए पाठ्यक्रमों की योजनाओं में स्पष्ट रूप से झलक रहा है। संस्कृति और भारतीय ज्ञान परंपरा के प्रति उत्साहपूर्ण संवेदनशीलता भी नए पाठ्यक्रमों में भिन्न-भिन्न मात्राओं में दिखाई दे रही है। इसी तरह विद्यार्थी के मूल शिक्षा केंद्र के अतिरिक्त अन्य शिक्षा केंद्रों से चुनी गई डिग्री और विषय के लिए उपयोगी ऑनलाइन पाठ्यक्रमों का अध्ययन करने और क्रेडिट पाने की व्यवस्था को भी स्वीकृति मिल चुकी है।

विद्यार्थियों के लिए क्रेडिट बैक की दिशा काफी प्रगति हुई है। विश्वविद्यालयों में अध्ययन के लिए प्रवेश पाने के लिए केन्द्रीय स्तर पर एकीकृत प्रवेश परीक्षा नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) द्वारा आयोजित की जा रही है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा अनुसंधान के लिए आवश्यक तैयारी की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए अनिवार्य कोर्स वर्क को एक वर्ष की अवधि का किया गया है। उच्च शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण के सवाल पर भी ध्यान दिया जा रहा है। विभिन्न भारतीय भाषाओं में पुस्तकें तैयार कर उपलब्ध कराने की योजना भी बनी है। अध्यापकों की गरिमा को प्रतिष्ठित करने के लिए उनके प्रशिक्षण और व्यावसायिक उन्नति के अवसर भी बढाए जा रहे हैं। इन सबके बीच अधिकांश उच्च शिक्षा के संस्थान अध्यापकों की अतिशय कमी की भयानक समस्या से जूझ रहे हैं और तदर्थ (एड हाक) या अतिथि अध्यापकों से सालों से काम चला रहे हैं।

स्कूली शिक्षा के लिए राष्ट्रीय स्तर पर पाठ्यक्रम की रूप-रेखा (नेशनल करीकुलर फ्रेमवर्क, एन सी ऍफ़ ) तैयार किए जाने की दिशा में भी कुछ प्रगति हुई है। राज्यों से इस तरह की पाठ्य-चर्या का ब्योरा प्राप्त कर राष्ट्रीय स्तर पर इसके निर्माण की बात सुनाई पड़ी थी। पर पाठ्य-चर्या तय कर उसके अनुसार पाठ्य पुस्तकों का निर्माण एक अति विशाल परियोजना है जिसमें बड़ा समय और श्रम लगता है। संतुलित ढंग से ज्ञान को प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करना कठिन कार्य है। यह तब और मुश्किल हो जाता है जब निहित रुचियों के चलते तथ्यों को तोड़ मरोड़कर और चुनकर प्रस्तुत किया जाता है। अनेक वर्षों से विभिन्न पुस्तकों में तथ्यात्मक गलतियों की तरफ ध्यान आकृष्ट किया जाता रहा है परन्तु उन आपत्तियों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था। समाज विज्ञान, साहित्य और इतिहास जैसे विषय संस्कृति और सभ्यता से घनिष्टता जुड़े होते हैं। विद्यालय के सामाजिक परिवेश और वहां प्रचलित मानकों के बीच देश का गौरव-बोध, सामाजिक संलग्नता और जीवन शैली के स्रोत भी रचे-बसे होते हैं।

विद्यालय का जीवन मानवीय मूल्यों की प्रयोगशाला होता है। इस दृष्टि से शिक्षक-प्रशिक्षण की प्रभावी व्यवस्था आवश्यक हो जाती है। यह चिंता का विषय है कि शिक्षक-प्रशिक्षण का पाठ्यक्रम और उसकी गुणवत्ता को सुनिश्चित करने की व्यवस्था अभी भी अंतिम रूप नहीं ले सकी है। इस सन्दर्भ में यह याद रखना होगा कि प्राथमिक शिक्षा बड़ी दयनीय हाल में है। भाषा और गणित के बुनियादी ज्ञान की कमजोरी को ध्यान में रखकर निपुण भारत नाम से एक राष्ट्रीय मिशन शुरू हुआ है ताकि तीसरे दर्जे तक बच्चे को यह क्षमता हासिल हो जाय। अब जब पूर्व प्राथमिक स्तर से ही शिक्षा को पुनर्व्यवस्थित करने का संकल्प लिया गया है तो जिम्मेदारी और बढ़ गई है।

किताबी पढाई से आगे बढ़कर अनुभव पर आधृत शिक्षा, नवाचार और कार्यानुभव पर जोर देने वाली पद्धति अपनाने का संकल्प बार-बार दुहराया जाता रहा है। पर इसके लिए संसाधन मुहैया कराने में अभी भी हम बहुत पीछे हैं। इस दृष्टि से प्रकट रूप में जो प्रगति दिख रही है वह अस्पष्ट और धीमी है। इस पर तत्काल ध्यान देना जरूरी होगा। इसी तरह से प्रतिभाओं, कुशलताओं और छात्र-छात्राओं की रुचियों में दिखने वाली विविधताओं के मद्देनजर पाठ्यक्रमों और विषयों के चयन की प्रक्रिया में लचीलापन सैद्धान्तिक तौर पर स्वीकार किया गया है परन्तु उसे कार्यरूप में कैसे लाया जाएगा इसे लेकर अभी भी नीतिगत निश्चय में स्पष्टता नहीं आ सकी है। इसके लिए आवश्यक तैयारी करनी होगी।

निजी क्षेत्र की शिक्षा संस्थाओं की स्वच्छंद व्यवस्था और सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं में हस्तक्षेप के फलस्वरूप अनेक मामले शैक्षिक स्तर की गिरावट का संकेत दे रहे हैं। कई कुलपतियों को उनके कदाचार के लिए हटाया गया और अब वह पद राजनीति के साथ जुड़ता जा रहा है। राज्य सरकारें उस पर एकाधिकार चाहती हैं। इन सबके चलते शिक्षा की गुणवत्ता के साथ समझौतों के कई मामले सामने आते रहे हैं। आज की परिस्थितियों में इनका क्षरण तेजी से देखा जा सकता है। आर्थिक कदाचार और छोटे-छोटे स्वार्थों को लेकर अनेक शैक्षिक संस्थाओं का परिवेश विषाक्त होता रहा है। वषों से उपेक्षित उच्च-शिक्षा के क्षेत्र में जिस तरह की जकड़न फैली हुई है उसे दूर किये बिना किसी तरह के नवाचार की आशा नहीं की जा सकती।

सकारात्मक भविष्य की परिकल्पना को केंद्र में रखकर शिक्षा नीति- 2020 राज्य की जन कल्याणकारी योजना के रूप में प्रस्तुत की गई है जो भारत की युवा जनसंख्या के सुखद भविष्य को चित्रित करती है। इसे क्रियान्वित करने की हर बाधा को दूर करने के लिए सरकार प्रतिबद्ध है। प्रस्तावित शिक्षा नीति में प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक अनेक नवाचार सुझाए गए हैं। उनको सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से लागू कर बेहतर शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराने की बात भी की जाती है। पर इन सबके लिए सघन सुधार, आर्थिक निवेश और शिक्षा को स्वायत्तता देने की दरकार है।

प्राचीन भारत की सभ्यता की विशिष्टता और ज्ञान की श्रेष्ठता के गौरव को आज हम पुन: धारण कर सकें, इसकी पात्रता भी अर्जित करनी होगी। उसके लिए ढांचागत सुधार और मूल्यपरक शिक्षा लागू करना ही एक मात्र विकल्प है। यह तभी संभव होगा जब हम विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में स्वायत्तता, स्वतंत्रता और जीवन मूल्य की केन्द्रिकता को स्थापित कर सकेंगे।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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