किसान आन्दोलन : पूर्व नियोजित था दिल्ली में उपद्रव

– गिरीश्वर मिश्र

लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जायज बात है और हर व्यक्ति या समुदाय को अपनी बात रखने का हक़ संवैधानिक मिला हुआ है। असहमति और विरोध जताने और अपना पक्ष रखने के लिए जो उपाय अपनाए जाते हैं वे प्रतीकात्मक भी होते हैं और उनका एक एक ठोस व्यावहारिक धरातल भी होता है। इस रूप में इस तरह की कोशिशें आम आदमी के जीवन को तात्कालिक रूप से बाधित और नकारात्मक ढंग से प्रभावित करती हैं। इसलिए उनके लिए सहानुभूति और समर्थन के लिए आम जन की सहिष्णुता भी जरूरी है। इसी दृष्टि से सभी चाहते हैं कि अभिव्यक्ति शांतिपूर्ण होनी चाहिए और सरकारी या गैर सरकारी किसी किस्म की हानि नहीं पहुंचानी चाहिए।

मुद्दों की प्रस्तुति को धार देने के लिए और समर्थन जुटाने की मुहिम में अब प्रत्यक्ष और अप्रयक्ष रूप से मीडिया ख़ासतौर पर इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया की लगातार उपस्थिति बड़ी भूमिका निभाने लगी है। परन्तु आन्दोलन की कोई संहिता नहीं होती है और यदि कोई सर्व स्वीकृत नेता न हो तो स्थिति बेकाबू होते देर नहीं लगती। ऐसे में आन्दोलन के विस्तार होने के साथ उसमें कई तरह के उपद्रवी तत्व भी शामिल होने लगते हैं। उनमें वे भी होते हैं जिनका आन्दोलन से कोई लेना-देना नहीं होता और वे अवसर का लाभ उठाकर निहित स्वार्थ पूरा करने की कोशिश करते हैं। वे क्या कर गुजरेंगे इसका अंदाजा नहीं होता है। देश के किसानों के आन्दोलन के साथ भी यही हुआ। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से कूच कर दिल्ली के बार्डर पर धीरे-धीरे किसानों का जमावड़ा शुरू हुआ जो अपने आकार में विस्तृत और संरचना में कई कई तरह की पृष्ठभूमियों वाला होता गया। इसमें ज्यादातर उच्च और और उच्च मध्यवर्ग के आर्थिक दृष्टि से समर्थ किसानों की संख्या ही अधिक रही और अपने घर गृहस्थी के साजो-सामान के साथ अस्थाई रिहायाह जैसी बना चले थे। दवा, दारू, मनोरंजन, लंगर आदि की सुविधाओं के साथ जितनी बड़ी संख्या में किसान भाई जुटे थे उसके लिए आर्थिक और मानवीय संसाधनों की दरकार अनुमान का विषय है। राशन पानी की व्यवस्था का सुदृढ़ आधार बिना बाहरी समर्थन के संभव ही नहीं था। पंजाब और दिल्ली प्रदेश की सरकारों का नैतिक और राजनैतिक समर्थन तो प्रकट ही रहा। यह दुखद रहा कि इस दौरान कुछ किसानों ने आत्महत्या भी की और ठण्ड और कभी-कभी उसी बीच बरसात से मुश्किलें झेलीं। हजारों किसानों ने अपने आन्दोलन को बड़े संयम से जारी रखा और सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश करते रहे। दिल्ली पर चारों ओर से किसान आन्दोलन कारियों का पहरा जनजीवन को मुश्किल में डालता रहा पर किसान और खेती के प्रश्न पर पूरे देश की सहानुभूति बनी रही और सभी समाधान ढूँढ़ने के प्रति आशान्वित थे।

सरकार द्वारा लागू किए गए किसानों से जुड़े तीन कानून, जिन पर उच्चतम न्यायालय ने रोक लगा रखी है, पिछले दो महीनों से वाद-विवाद के घेरे में हैं और किसान संगठनों के साथ सरकार की लगातार बात चलती रही। इस दौरान कई बातें स्पष्ट हुईं और सहमति भी बनी परन्तु किसान नेता असंतुष्ट रहे और उनकी शंकाएं बनी रहीं। वे उसे रद्द करने पर अड़े रहे जबकि सरकार कानूनों पर विचार कर उनमें जरूरी सुधार के लिए खुले मन से विचार करने के लिए तैयार रही। विपक्षी राजनीतिक दलों की भूमिका विचित्र रही क्योंकि वे इन कानूनों के प्रावधानों के लिए कभी खुद वकालत करते थे। वर्त्तमान सरकार के कार्यों में किसानों की अवस्था को सुधारने की दिशा में, ख़ासतौर पर निम्न आय वाले किसानों के लिए, अनेक कदम उठाए हैं जिनका लाभ बिचौलियों को छोड़ सीधे उनतक भी पहुंचा है। सरकारी बयान लगातार नए कानूनों के निहितार्थ को लेकर उठने वाली शंकाओं को निरस्त करते रहे हैं पर किसान नेताओं की यही जिद बनी रही कि वे कानूनों को वापस लेने से कम पर राजी नहीं होंगे। उनकी एक ही रट लगी रही कि किसानों से बिना पूछे कानून उनको किसी शर्त पर स्वीकार्य नहीं है। सरकारी सूचना के मुताबिक़ नए कानून कृषि से जुड़े लाभार्थियों के साथ परामर्श के बाद ही बने थे और अभी भी उनमें जरूरी संशोधन से गुरेज नहीं है। विपक्ष के लिए यह अच्छा अवसर बना और अंध-विरोध की मंशा समाधान से ज्यादा प्रभावी रही।

इस पृष्ठभूमि में गणतंत्र दिवस का अवसर आन्दोलन के दमखम को प्रमाणित करने का मौक़ा बन गया और किसान नेताओं ने ट्रैक्टर रैली निकालने की ठानी। काफी जद्दोजहद के बाद एक ख़ास रास्ते पर शांतिपूर्ण रैली निकालने पर सहमति बनी परन्तु जो वीडियो सामने आए हैं उनसे यही लगता है रैली के अनेक नेता अपने समर्थकों को भड़का रहे थे और उत्तेजना का वातावरण बना रहे थे। छब्बीस जनवरी के दिन टैक्टर रैली का समय, मार्ग और अस्त्र-शस्त्र से रहित प्रदर्शन की हिदायत धरी रह गई और देश की गरिमा और तिरंगे की शान के खिलाफ जाकर ट्रैक्टर रैली ने हिंसक रूप लिया। कानून व्यवस्था की जमकर धज्जियां उड़ाईं और लाल किले पर न केवल अशोभनीय व्यवहार किया बल्कि भय और आतंक का वातावरण बनाया। घंटों दिल्लीवासी इस हिंसक वारदात से सहमे रहे। यह सब पूर्व नियोजित था और इसे करने के लिए किसी ने नहीं उकसाया था। यह स्वतः स्फूर्त तांडव था जिसकी भेंट चढ़ गई लाल किले की व्यवस्था, संसाधन और गण तंत्र की गरिमा।

गौरतलब यह भी है कि इस दिन के पहले किसान आन्दोलन में इस तरह के उपद्रवी तत्वों के शामिल होने की बात को किसान नेता सिरे से नकारते रहते थे। पुलिस बल ने जबरदस्त संयम से काम लिया और निरंतर समझाने-बुझाने की कोशिश करते रहे। जब सबकुछ बेकाबू होने लगा तो आंसू गैस के गोले दागे गए।

जो कुछ हुआ वह निंदनीय है और सभ्य समाज में इसकी कोई जगह नहीं है। यह सब गणतंत्र दिवस की छवि और देश की गरिमा को ठेस पहुंचाने वाला तो है ही यह भी स्पष्ट है कि लोकतंत्र के लिए जरूरी अनुशासन के बिना हम कहीं के नहीं रहेंगे। हमें अपना बर्ताव जिम्मेदारी वाला बनाना होगा। सत्ता का आग्रह छोड़ सत्याग्रह होना चाहिए और सत्य हमेशा कल्याणकारी होता है। इस हिसाब से राजनीति देश के लिए होनी चाहिए उसकी बलि बेदी पर देशहित को भेंट चढ़ाना किसी के काम नहीं आएगा। किसानों सहित सबको यह बात समझनी होगी कि देश हित ही सर्वोपरि है। देश की आत्मनिर्भरता के लिए कृषि का महत्त्व किसी से छिपा नहीं है इसलिए किसानों की समस्याओं के समाधान को वरीयता देनी होगी।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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