पक्ष-विपक्ष को मजबूत करेंगे क्षेत्रीय दल

– डॉ. प्रभात ओझा

सैद्धांतिक तौर पर केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार होने के बावजूद अकेले स्पष्ट बहुमत रखने वाली भारतीय जनता पार्टी संतुष्ट और निश्चिंत दिखाई देती रही है। वर्ष 2014 में एनडीए गठबंधन में भाजपा ने अकेले 282 सीटें हासिल की थी, तो 2019 में बढ़कर यह 303 हो गई थी। संसद और सरकार में संख्या बल मायने रखता है और हाल के वर्षों में यह भाजपा के हक में रहा है। इस सैद्धांतिक स्थिति में उस समय बदलाव होते दिखने लगते हैं, जब चुनाव नजदीक हों। लोकसभा के चुनाव अब साल भर से भी कम समय में होने वाले हैं। प्रश्न है कि क्या मुख्य सत्तारूढ़ दल अपना ही पुराना रिकार्ड कायम रख पाएगा। पटना में विपक्षी एकता के लिए हुई बैठक को भारतीय जनता पार्टी नकारने में लगी है। इस बीच पश्चिम बंगाल में कांग्रेस-टीएमसी के कटु होते रिश्ते के अलावा दिल्ली में आए विधेयक के सवाल पर पंजाब, हरियाणा और तेलंगाना में कांग्रेस के लिए परेशानी खड़े करने वाली आम आदमी पार्टी ने भाजपा को संतुष्ट ही किया है। फिर भी इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि कई दलों का एक साथ आना कुछ असर तो जरूर डालता है।

पटना में हुई विपक्षी दलों की बैठक को अपने अपने नजरिये से देखने वालों की बल्ले-बल्ले है। ऐसे देखने वालों के ‘अपने लोग’ अनुकूल समीक्षाओं से प्रसन्न भी हैं। केंद्र में सत्तारूढ़ मुख्य दल ने इस बैठक को न जाने किस किस तरह की संज्ञाओं से विभूषित किया है। आम तौर पर इस बैठक को विपक्षी नेताओं का फोटो सेशन कह कर इसे हलका बताने की कोशिश हुई है, तो इसे बेमेल बताते हुए इसकी दूसरी बैठक से पहले ही खारिज किया जा रहा है। जवाब में भारतीय जनता पार्टी पर भी हमले हुए हैं। स्वाभाविक है कि राजनीतिक दल और उनके शुभचिंचकों की अपनी चिंताएं हुआ करती हैं। सम्यक दृष्टिकोण वाले लोग चुपचाप पटना के बाद शिमला में प्रस्तावित बैठक पर नजर लगाए हैं।

शिमला हिमाचल प्रदेश की राजधानी है, जहां कांग्रेस की सरकार है। पटना में ‘फोटो सेशन’ और अब गर्मियों के बीच शिमला में ‘पर्यटन’ की बात कहकर विपक्ष की हर बैठक को परिणामविहीन ठहराया जा रहा है। ऐसे तर्क देने वालों के पास आधार भी हैं। पहली ही बैठक में दिल्ली के लिए आए अध्यादेश के खिलाफ कांग्रेस का समर्थन नहीं मिलने पर आम आदमी पार्टी के नेता और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने संयुक्त प्रेस वार्ता में हिस्सा नहीं लिया। उन्होंने यह बयान भी दिया कि जब तक कांग्रेस इसपर आम आदमी पार्टी का साथ नहीं देती, उनकी पार्टी का विपक्ष की बैठकों में हिस्सा लेना मुश्किल है। अब तो उन्होंने दिल्ली में आप के सांगठनिक बदलाव के बाद हरियाणा में भी ब्लॉक स्तर तक के पदाधिकारी घोषित कर दिए हैं। इसके पहले केजरीवाल ने ही यह कहा था कि विपक्षी एकता को ताकत देने के लिए जरूरी है कि कोई भी दल किसी राज्य में फिलहाल सांगठनिक विस्तार न करे।

विपक्षी गठबंधन विरोधी ताकतों को पश्चिम बंगाल से भी अच्छी खबर मिल रही है। पटना में बैठक के बाद संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस से उस समय ममता बनर्जी का उठकर जाना चर्चा में रहा, जब सीपीएम के नेता सम्बोधित करने वाले थे। इस बीच कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी राज्य में ममता बनर्जी पर बहुत कटु हमले कर रहे हैं। तो क्या अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी के रुख से भाजपा निश्चिंत है? ऐसा दिखाई नहीं देता। यही कारण है कि पार्टी कोई खतरा उठाना नहीं चाहती। इसीलिए एक तरफ विपक्ष पर आक्रमकता बढ़ा दी गई है, तो दूसरी ओर नए-पुराने साथी दलों को साथ लाने की कवायद भी शुरू है।

गठबंधन के प्रश्न पर भारतीय जनता पार्टी की तरफ से कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है, किंतु हलचल स्पष्ट संकेत दे रहे हैं कि पार्टी 2024 के लिए कवायद में जुट गई है। बिहार से हिंदुस्तान आवाम पार्टी (हम) के जीतनराम मांझी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का साथ छोड़कर फिर से एनडीए का हिस्सा बन चुके हैं। बिहार में ही उपेंद्र कुशावाहा की आरएलजेडी और मुकेश सहनी की वीआईपी से भी नजदीकियां बढ़ने के संकेत मिल रहे हैं। लोक जनशक्ति पार्टी के नेता चिराग पासवान अपने चाचा और केंद्रीय मंत्री पशुपति पारस के पार्टी थोड़कर पहले ही एनडीए में जाने से व्यथित हैं। साथ ही उन्होंने तमाम तल्खियों के बीच खुद को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का हनुमान ही बताया है। भाजपा अब चिराग को भी मना सकती है। इसी महीने तेलुगु देशम के चंद्रबाबू नायडू ने भी भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा और गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात की थी। उधर कर्नाटक में करारी हार के बाद जनता दल (एस) के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा ने यह बयान देकर अपनी मंशा जाहिर कर दी है कि ऐसा कौन सा दल है, जिसने भाजपा से दोस्ती नहीं की है। पंजाब जाकर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने शिरोमणि अकाली दल को भी साथ लाने का प्रस्ताव रख दिया है।

राजनीतिक क्षेत्रों में कयास है कि विपक्षी एकता के लिए कांग्रेस को कुछ छोड़ने के लिए राजी किया जा सकता है। कर्नाटक विजय के बाद कांग्रेस मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ को लेकर उत्साहित है, परन्तु देश में दूसरे राज्य भी हैं। ऐसा मुमकिन तो नहीं लगता कि लोकसभा की हर एक सीट पर विपक्षी गठबंधन भाजपा अथवा उसके नेतृत्व वाले गठबंधन के आमने-सामने लड़ने के लिए एक उम्मीदवार पर सहमत हो जाए। फिर भी कोशिश है कि ऐसी कम से कम 200 सीटों की तलाश की जा रही है। बाकी क्षेत्रों में गठबंधन के दल ‘मित्रवत संघर्ष’ की स्थिति में रहेंगे। ऐसे संघर्ष में विपक्षी उम्मीदवार जीत के बाद गठबंधन का ही हिस्सा होगा। यह भी चर्चा है कि नीतीश कुमार इस नये गठबंधन के नेता भले दिखाई दें, कांग्रेस के ‘त्याग’ में यह भी हो सकता है कि गांधी परिवार के किसी सदस्य की जगह पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे उसके नेता के तौर पर प्रस्तु किए जाएंगे। उनकी वरिष्ठता और उनका दलित होना विपक्षी एकता के लिए मायने रखेगा। बहरहाल, अभी सभी कुछ भविष्य के भंवर में है।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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