ये पॉलिटिक्स है प्यारे


कहीं कर्नाटक जैसा हश्र तो नहीं होगा?
कर्नाटक में भाजपा का जो हाल हुआ है ऐसा हाल मध्यप्रदेश में न हो जाए, इसको लेकर कुछ नेताओं ने चिंता जाहिर की है। खुलकर कोई कुछ बोल नहीं पा रहा है, लेकिन जिस तरह से प्रदेश में विधानसभा चुनाव की कमान शीर्ष नेतृत्व ने हाथ में ले ली है, उससे प्रदेश के दिग्गजों के अहं को भी चोट पहुंची है, जो पांच साल तक प्रदेश को संभाले रखते हैं। हालांकि शीर्ष नेतृत्व द्वारा पूरी कमान अपने हाथ में लिए जाने के कई मतलब निकाले जा रहे हैं। नेताओं की विडंबना है कि इसी तरह का प्रयोग कर्नाटक में किया गया था और स्थानीय नेताओं को तवज्जो नहीं मिलना, वहां हार का एक बड़ा कारण भी रहा। कहीं ऐसा न हो कि कर्नाटक में जो नाटक हुआ वह यहां दोहरा जाए। अब बोलें तो किससे बोलें….जो मुंह खोले…वो सीधे हाशिए पर आ जाएगा।
प्रदर्शन में घायल हुए कांग्रेसी के हाल बेहाल
नगर निगम पर हुए प्रदर्शन में पुराने थाटी कांग्रेसी मोहन मेहरा घायल हो गए थे। प्राथमिक इलाज के बाद डॉक्टर ने आराम की सलाह दी, लेकिन उनके हालचाल जानने कोई बड़ा कांग्रेसी नेता उनके घर तक नहीं पहुंचा। कभी छात्र नेता के तौर पर कांग्रेस का झंडा बुलंद करने वाले मेहरा को यही पीड़ा बार-बार सता रही है। वैसे शरमाशरमी में कुछ नेता दो दिन पहले वहां हो आए, जबकि क्षेत्र के भाजपा विधायक रमेश मेंदोला और पार्षद जीतू यादव सबसे पहले उनके हालचाल जानने उनके घर पहुंच चुके थे।

कांग्रेसी पार्षदों का फिर वही रोना
महापौर पुष्यमित्र भार्गव सालभर में कोई बड़ी उपलब्धि नहीं गिना पाए, लेकिन विपक्ष को विरोध करना था तो कल चंद पार्षदों के साथ नेता प्रतिपक्ष चिंटू चौकसे ने वही रोना रोया जो वे सालभर से रोते आए हैं। उनके सुर में सुर मिलाकर दूसरे पार्षद भी कहते रहे कि हमारे वार्ड में कुछ नहीं हुआ। हालांकि यहां कांग्रेसी पार्षदों में ही गुटबाजी नजर आई और कुछ पार्षद जानबूझकर प्रेस कान्फ्रेंस में नहीं पहुंचे। हालांकि चौकसे ने सबको एकसाथ लेकर काम की बात कही थी, लेकिन नजारा कल कुछ अलग था।
गांव की राजनीति में मचमच…अगड़े हुए नाराज
कांग्रेस जिलाध्यक्ष सदाशिव यादव के साथ दो-दो कार्यवाहक अध्यक्ष बना दिए गए हैं। एक तो बलराम पटेल और दूसरे सोहराब पटेल। दोनों ही नेता पिछड़ा वर्ग से आते हैं और फिर सदाशिव यादव भी पिछड़ा वर्ग से ही हैं। पहले अध्यक्ष और फिर कार्यवाहक अध्यक्ष की दौड़ में आगे चल रहे दावेदारों ने अपनी ही पार्टी पर सवाल उठा दिए कि क्या पार्टी को केवल पिछड़ा वर्ग के ही वोट चाहिए, उन्हें दूसरी जातियों से कोई मतलब नहीं। इसके बाद करणी सेना का विरोध भी सामने आ गया और सोशल मीडिया पर अगड़ों को आगे नहीं करने को लेकर आपत्ति दर्ज करा दी गई। दरअसल सोहराब जीतू पटवारी तो बलराम विधायक विशाल पटेल खेमे के हैं और दोनों ने ही अपने-अपने पॉवर का इस्तेमाल कर उनकी नियुक्ति करवा ली है। बस इसी से ग्रामीण क्षेत्र की राजनीति में मचमच शुरू हो गई है, जिसका असर दिखाई दे रहा है।
क्या भाजपाई ब्राह्मण ही थे?
अमित शाह को जानापाव की पहाड़ी पर जिन ब्राह्मणों से मिलाया गया, उनमें केवल भाजपाई ब्राह्मण थे। इसको लेकर कांग्रेसी ब्राह्मणों की भांैहें तन गईं और उन्होंने सोशल मीडिया पर भड़ास निकाल डाली। सवाल किया कि क्या ब्राह्मण भाजपाई ही हैं, जो उन्हें मिलाया गया। शहर में दूसरे ब्राह्मण संगठन भी हैं, उन्हें भी शामिल किया जा सकता था, लेकिन यहां भी नेतागीरी?

सिर पर नए बालों के साथ प्रकट हुए दावेदार
एक विधानसभा से टिकट की दावेदारी कर रहे भाजपा के एक वरिष्ठ नेता पुत्र अपने सिर पर बाल उगवाकर आ गए हैं। किसी कारण से उनके बाल उड़ रहे थे और उन्होंने फिर से हेयर विविंग करवाई है, ताकि चेहरा सुंदर दिख सके। बताया जा रहा है कि इसमें 5 लाख रुपए तक खर्च किए गए हैं। हालांकि अभी तय नहीं है कि इन्हें टिकट मिलेगा या नहीं, लेकिन पूरी ताकत उनके परिजनों ने लगा दी है और शहर की सीमा से लगी एक विधानसभा से उनको प्रबल दावेदार बताया जा रहा है। इस बार नहीं तो कभी नहीं की तर्ज पर पूरी कोशिश की जा रही है।
एक साल में भी स्पीड नहीं पकड़ पाए मित्र
मित्र को एक साल पूरा हो गया है, लेकिन वे अभी न तो राजनीतिक रफ्तार में आए हैं और न ही इंदौर जैसे शहर के महापौर के तौर पर। वैसे सरल, सौम्य और सहज स्वभाव के कारण भी उनके चेहरे पर आक्रामक नेता नजर नहीं आ पाता है, जो आना चाहिए। इंदौर मेयर के पद पर ऐसा तेजतर्रार चेहरा चाहिए, जो अधिकारियों की लगाम अपने हाथ में रख सके, तभी जनप्रतिनिधियों के काम पूरे हो पाएंगे, लेकिन मित्र स्पीड पकड़ नहीं पा रहे हैं और विपक्षियों को उन पर चढऩे का मौका मिल जाता है। सालभर पहले कई घोषणाएं करने वाले मित्र ऐसी एक भी योजना नहीं बता पाए, जो उन्होंने पूरी कर ली हो और उसके बल पर वे अपनी वाहवाही कर सकें। फिलहाल तो मित्र पर ये कहावत फिट है- ‘कहीं पर निगाहें, कहीं पर निशाना’। इसका मतलब तो आप समझ गए होंगे। देखिए मित्र के टिकट का क्या होता है?

अमित शाह के भोपाल दौरे के बाद कोई भी बड़ा नेता मुंह खोलने को तैयार नहीं है, क्योंकि शाह के जासूस प्रदेश में सक्रिय हो गए हैं। इधर जुबां खुली और उधर कान तक बात पहुंची। फिर उसमें मिर्च-मसाला नहीं डाला जाए तो बताने वाले की अहमियत कम हो जाती है। इंदौर के नेता भी भोपाल वालों को देखकर कुछ नहीं बोल रहे हैं। अब सब चुपचाप चल रहा है और इशारों ही इशारों में बातें हो रही हैं। जिन्हें टिकट चाहिए वे भी चुपचाप हैं और जी-भाईसाब के अलावा कुछ नहीं कह रहे हैं। -संजीव मालवीय

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