जो सिखा गए बाबूजी उस राह को मंजिल बनाएंगे… शब्दों में हर दिन उनके संस्कार नजर आएंगे…

बचपन के कदम… यौवन का सफर…दिन गुजरे…महीने सालों में बदले…साल दशक में तब्दील हो गए…और आज अग्निबाण अपने 46वें वर्ष का सफर तय कर 47वें वर्ष के पायदान पर पैर रख रहा है… इस सफर के अतीत में कई वसंत हैं…वसंत है तो तपन भी है…तपन है तो पतझड़ भी है…ग्रीष्म है तो तूफान भी है…हमें हर मौसम ने आजमाया…और मौसम के हर बदलाव में हमने अपने आप को मजबूत बनाया, क्योंकि हमारे साथ था हमारे लाखों पाठकों का भरोसा…हमारे प्राण-पुरुष स्व. नरेशचंद्रजी चेलावत हमारे बाबूजी के संस्कार…निष्पक्षता का प्रमाण…कलम की निष्ठा और हौसलों की परीक्षा…अग्निबाण अखबार नहीं सपना था… छोटा सा शहर, जिसकी दूरी कदमों से नप जाती थी…साइकिल घंटेभर में शहरभर की परिक्रमा कर लौट आती थी…गाडिय़ां गिनी-चुनी नजर आती थीं…कार तो कहीं-कहीं ही दिख पाती थी…आवाज लगाओ तो खबरें पास आ जाती थीं…तब दस पैसे की कीमत भी भारी नजर आती थी…ऐसे में अग्निबाण की पैदाइश और लालन-पालन की जिम्मेदारी अपने कांधों पर सहेजने वाले हमारे बाबूजी की पहली जिद कलम का साहस और पाठकों का भरोसा थी…शाम का अखबार उनकी सनक के रूप में समझा गया…छोटे कद के दैनिक अखबार का पहला प्रयोग शहर के लिए कौतुक का विषय था… लेकिन उनके जेहन का साहस पहाड़ सा मजबूत था, लोगों के मन में सवाल थे तो उनमें स्वयं को खपाने की जिद थी…दिनभर का कठोर परिश्रम…रिपोर्टर भी खुद, संपादक भी खुद, वितरक भी खुद और पौषक भी खुद… एक कांधे पर पूरे अखबार का बोझ उठाए हमारे संस्थापक सफलता को प्रमाण बनाने की इस हौसलाई जंग में सेना भी थे तो सिपाही भी…मेरा बालपन उनके संघर्ष का साक्षी था…स्वयं को खपाकर किया सृजन परिणाम तो देना ही था… संघर्ष, समर्पण, हौसले ने कामयाबी की सीढिय़ां चढऩा ही था…केवल छह सालों में अखबार को इंदौर का कामयाब शाम का दैनिक बनाने की खुशी दिल संभाल नहीं पाया… अपने सपने को अपने पैरों पर खड़ा कर हमारे बाबूजी दिव्य लोक के लिए महाप्रयाण कर गए…यह हमारे लिए ऐसा पीड़ाजनक आघात था जो हमारे सामने कई सवाल खड़े कर गया…हम अवाक थे, लेकिन संकल्पित… जो सिखाया, जो समझाया… उन्हें देखकर जो ज्ञान पाया… संघर्ष की जिस राह को साक्षी बनाया… वो चक्रव्यूह को भेदने का साहस भी था और परिणाम भी… उन्होंने जिस निर्भिकता और दबंगता के साथ पाठकों का विश्वास पाया, उसे थामकर अग्निबाण की राह बनाना… उनके कर्म-यज्ञ को अपना ध्येय बनाना हमारा सफर भी था और मंजिल भी… हम चल रहे हैं… बढ़ रहे हैं निडरता के साथ, निष्पक्षता के साथ… अग्निबाण हमारे पाठकों का है और हम उनके सेवक… न डरेंगे, न झुकेंगे, न किसी का अहित करेंगे… सच्चाई का साथ देंगे… न कलम की दोस्ती निभाएंगे… न शत्रुता दिखाएंगे… न अहंकार नजर आएगा और न कोई विकार हमें छू पाएगा… हमारे लाखों पाठकों को साक्षी मानकर अपने बाबूजी के संकल्पों का जेहन में रखकर यही प्रण लेते हैं, क्योंकि हम जानते हैं और मानते हैं कि लोग अखबार के लिए पूंजी लगाते हैं… साधन-संसाधन जुटाते हैं, लेकिन हमारे प्राण-पुरुष ने तो अपने प्राणों को अखबार में लगाया है और तब जाकर हमने पाठकों के विश्वास की दौलत को पाया है… हमें जिस विरासत को थमाया है… वह विश्वास कायम रहेगा… वर्षों तक… युगों तक.. अखबार के हर पन्नों पर लिखे शब्दों में इस सच का प्रमाण मिलता रहेगा…

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