विश्व टेलीविजन दिवस: मानव जीवन में टीवी की भूमिका

– योगेश कुमार गोयल

‘ब्लैक ऐंड व्हाइट’ बुद्धू बक्सा (टेलीविजन) अपने सहज प्रस्तुतिकरण के दौर से गुजरते हुए कब आधुनिकता के साथ कदमताल करते हुए सूचना क्रांति का सबसे बड़ा हथियार और हर घर की अहम जरूरत बन गया, पता ही नहीं चला। यह दुनिया-जहान की खबरें देने और राजनीतिक गतिविधियों की सूचनाएं उपलब्ध कराने के अलावा मनोरंजन, शिक्षा तथा समाज से जुड़ी महत्वपूर्ण सूचनाओं को उपलब्ध कराने, प्रमुख आर्थिक और सामाजिक मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करते हुए समूचे विश्व के ज्ञान में वृद्धि करने में मदद करने वाला एक सशक्त जनसंचार माध्यम है। यह संस्कृतियों और रीति-रिवाजों के आदान-प्रदान के रूप में मनोरंजन का सबसे सस्ता साधन है, जो तमाम महत्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करते हुए पूरी दुनिया के ज्ञान में असीम वृद्धि करने में मददगार साबित हो रहा है। मानव जीवन में टीवी की बढ़ती भूमिका तथा इसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं पर चर्चा करने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 21 नवंबर को विश्व टेलीविजन दिवस मनाया जाता है।

संचार और वैश्वीकरण में टेलीविजन की बेहद महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए इसके महत्वों को रेखांकित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा विश्व टेलीविजन दिवस मनाने की जरूरत महसूस की गई और आम जिंदगी में टीवी के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए आखिरकार टीवी के आविष्कार के करीब सात दशक बाद वर्ष 1996 में विश्व टेलीविजन दिवस मनाने की घोषणा कर दी गई। दरअसल टीवी के आविष्कार को सूचना के क्षेत्र में एक ऐसी क्रांति का आविष्कार माना गया है, जिसके जरिये समस्त दुनिया हमारे करीब रह सकती है और हम अब घर बैठे ही दुनिया के किसी भी कोने में होने वाली घटनाओं को लाइव देख सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र द्वारा पहली बार 21 तथा 22 नवंबर 1996 को विश्व टेलीविजन मंच का आयोजन करते हुए टीवी के महत्व पर चर्चा करने के लिए मीडिया को प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराया गया था। उस दौरान विश्व को परिवर्तित करने में टीवी के योगदान और टीवी के विश्व पर पड़ने वाले प्रभावों के संदर्भ में व्यापक चर्चा की गई थी। उसी के बाद संयुक्त राष्ट्र महासभा में 17 दिसंबर 1996 को एक प्रस्ताव पारित करते हुए प्रतिवर्ष 21 नवंबर को विश्व टेलीविजन दिवस मनाने का निर्णय लिया गया और तभी से प्रतिवर्ष 21 नवंबर को ही यह दिवस मनाया जाता रहा है।

इलेक्ट्रॉनिक टेलीविजन का आविष्कार 1927 में हुआ माना जाता है और उसके करीब 32 साल बाद इलेक्ट्रॉनिक टेलीविजन ने भारत में पहला कदम रखा। भारत में टीवी का पहला प्रसारण प्रायोगिक तौर पर दिल्ली में दूरदर्शन केन्द्र की स्थापना के साथ 15 सितंबर 1959 को शुरू किया गया। उस समय टीवी पर सप्ताह में केवल तीन दिन ही मात्र तीस-तीस मिनट के कार्यक्रम आते थे लेकिन इतने कम समय के बेहद सीमित कार्यक्रमों के बावजूद भी टीवी के प्रति लोगों का लगाव बढ़ता गया और यह बहुत जल्द लोगों की आदत का अहम हिस्सा बन गया। दूरदर्शन का व्यापक प्रसार हुआ वर्ष 1982 में दिल्ली में हुए एशियाई खेलों के आयोजन के प्रसारण के बाद। दूरदर्शन द्वारा अपना दूसरा चैनल 26 जनवरी 1993 को शुरू किया गया और उसी के बाद दूरदर्शन का पहला चैनल डीडी-1 और दूसरा नया चैनल डीडी-2 के नाम से लोकप्रिय हो गया, जिसे बाद में डीडी मैट्रो नाम दिया गया। भले ही टीवी के आविष्कार के इन दशकों में इसका स्वरूप और तकनीक पूरी तरह बदल चुकी है लेकिन इसके कार्य करने का मूलभूत सिद्धांत अभी भी पहले जैसा ही है।

हालांकि किसी भी वस्तु के अच्छे और बुरे दो अलग-अलग पहलू भी हो सकते हैं। कुछ ऐसा ही सूचना एवं संचार क्रांति के अहम माध्यम टीवी के मामले में भी है। एक ओर जहां यह मनोरंजन और ज्ञान का सबसे बड़ा स्रोत बन चुका है और नवीनतम सूचनाएं प्रदान करते हुए समाज पर सकारात्मक प्रभाव डालता है, वहीं इसके नकारात्मक प्रभाव भी सामने आते रहे हैं। टेलीविजन की ही वजह से ज्ञान, विज्ञान, मनोरंजन, शिक्षा, चिकित्सा इत्यादि तमाम क्षेत्रों में बच्चों से लेकर बड़ों तक की सभी जिज्ञासाएं शांत होती हैं। अगर नकारात्मक पहलुओं की बात करें तो टीवी के बढ़ते प्रचलन के साथ-साथ इस पर प्रदर्शित होते अश्लील, हिंसात्मक, अंधविश्वासों का बीजारोपण करने तथा भय पैदा करने वाले कार्यक्रमों के कारण हमारी संस्कृति, आस्था और नैतिक मूल्य बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं। टीवी पर विभिन्न कार्यक्रमों में लगातार हत्या और बलात्कार जैसे दृश्य दिखाने से बच्चों का मानसिक विकास प्रभावित होता है। मौजूदा समय में टीवी मीडिया की सबसे प्रमुख ताकत के रूप में उभर रहा है और मीडिया का हमारे जीवन में इस कदर हस्तक्षेप बढ़ गया है कि टीवी के वास्तविक महत्व के बारे में अब लोगों को पर्याप्त जानकारी ही नहीं मिल पाती।

देश में जहां दूरदर्शन की शुरुआत के बाद दशकों तक दूरदर्शन के ही चैनल प्रसारित होते रहे, वहीं 1990 के दशक में निजी चैनल शुरू होने की इजाजत मिलने के साथ एक नई सूचना क्रांति का आगाज हुआ। इन तीन दशकों में निजी चैनलों को लगातार मिलते लाइसेंस के चलते अब देशभर में टीवी पर करीब एक हजार चैनल प्रसारित होते हैं। इससे दूरदर्शन जैसे माध्यम कमजोर हो गए हैं और अब हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं, जहां सूचना व संचार माध्यमों ने हमें इस कदर अपना गुलाम बना लिया है कि इनके अभाव में जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकते। हालांकि ढेर सारे टीवी चैनलों की बदौलत जहां ज्ञान, विज्ञान, शिक्षा, सूचना आदि के स्रोत बढ़े हैं, वहीं चिंताजनक स्थिति यह है कि टीआरपी की बढ़ती होड़ में बहुत से निजी टीवी चैनल जिस प्रकार गलाकाट प्रतिद्वंद्विता के चलते समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों की अनदेखी करते हुए दर्शकों के समक्ष कुछ भी परोसने को तैयार रहते हैं, उससे युवा पीढ़ी दिशाहीन हो रही है और जनमानस में गलत संदेशों का बीजारोपण होता है। इसीलिए मांग उठने लगी है कि दिशाहीन टीवी कार्यक्रमों के नकारात्मक प्रभावों पर अंकुश लगाने और अपसंस्कृति के प्रसार को रोकने के लिए इन पर कुछ कड़े कानूनी प्रतिबंधों का प्रावधान होना चाहिए।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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