आरक्षण देकर महिलाओं को सत्ता में लाओगे…पर पुरुष पतियों से उनका पीछा कैसे छुड़ाओगे…

महिला आरक्षण से ज्यादा जरूरी है पुरुष पतियों से संरक्षण
महिला आरक्षण… पुरुषों का भक्षण… कहां से लाएंगे इतनी नेत्रियां… महिलाएं राजनीति में तो आएंगी, लेकिन सत्ता पतियों की हो जाएगी… कहने-सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन भारतीय संस्कृति और सामाजिक परम्पराओं में यह सब कहां चलता है… आज भी महिलाओं का बाहरी सरोकार सीमित रहता है… बिजली के बिल भरने से लेकर घर की समस्याओं तक का जिम्मा पुरुषों के कांधों पर रहता है… पुरुष ही घर के विवाद निपटाता है… कारोबार से लेकर काम-धंधों तक की जिम्मेदारी उठाता है… सरकारी महकमों के पचड़ों में पुरुष ही चक्कर लगाता है… उलाहना, उपेक्षाओं का शिकार भी पुरुष होकर खट्टे-मीठे अनुभव पाता है… जीवन की सांप-सीढ़ी के उतार-चढ़ाव भी उसी के हिस्से में आते हैं… यह अपवाद शहरी क्षेत्रों में हो सकता है, जहां महिलाएं घर के चौके-चूल्हे से निकलकर बाहरी जीवन के संघर्ष में हिस्सा लेने के प्रयास में जुटी हैं, लेकिन ग्रामीण परिवेश आज भी महिलाओं को आंचल-पल्लू और सर ढंकने की परम्पराओं से आजाद करने को तैयार नहीं है… वहां महिलाएं खेतों में काम करती हैं लेकिन फसल बेचने पुरुष ही मंडी में जाता है… वहां महिलाएं मजदूरी तो करती हैं, लेकिन कमाई पुरुषों के हाथ पर धरती हैं… वहां महिलाएं पानी के लिए संघर्ष तो करती हैं, लेकिन शिकायत अपने पति से ही कर सकती हैं… जमीन का नामांतरण हो या हकबंदी प्रशासन की चौखट पर पुरुष संघर्ष करता है… इसीलिए महिलाओं को उस दर्द का अहसास कहां रहता है…फिर यदि महिलाएं राजनीति में लाई जाएंगी तो वो भी पुरुषों के कांधों पर ही सत्ता चलाएंगी… देश में पार्षद पति की तरह विधायक पति और सांसद पति की आवाज गूंजती नजर आएगी… वो महिला रात में कहां घर से बाहर निकल पाएंगी… समस्याओं से जूझते लोगों की मुश्किलों से रूबरू होने कहां गांव-गांव जा पाएंगी… जरूरी है कि महिलाओं को राजनीति में लाया जाए, लेकिन उनके स्वनिर्णय और क्षमताओं के बारे में भी सोचा जाए… एक तिहाई महिलाओं को राजनीति सौंपने का निर्णय केवल आधी आबादी को प्रभावित करने का प्रयास हो सकता है, लेकिन यह राजनीतिक विपदा का कारण भी बन सकता है… यह प्रयास पहले पंचायत स्तर पर होना चाहिए, फिर निगम स्तर पर और उसके बाद विधायकी और संसद तक पहुंचना चाहिए, ताकि महिलाओं की राजनीतिक फौज तैयार हो सके और पुरुषों से आजाद महिलाओं की सत्ता का सोपान देश को मिल सके… फिलहाल तो स्थिति यह है कि निगमों में पार्षद महिलाएं होती हैं और बैठकों में पति सम्मिलित होते हैं… इंदौर में तो ऐसे ही पुरुषों को रोकने के लिए प्रशासनिक अफसरों को आवाज तक उठानी पड़ी…

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