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“भारत एक सेकुलर देश है” यूपी के धर्मांतरण विरोधी कानून पर सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी

October 25, 2025

नई दिल्ली । उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में लागू धर्मांतरण विरोधी कानून (anti-conversion law) को लेकर सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने सवाल उठाए हैं। अदालत ने कहा कि इस कानून के माध्यम से अपना धर्म बदलने के इच्छुक लोगों की राह को कठिन बनाया गया है। इसके अलावा जस्टिस जेबी पारदीवाला (Justice JB Pardiwala) और जस्टिस मनोज मिश्रा (Justice Manoj Mishra) की बेंच ने किसी के धर्म परिवर्तन करने की प्रक्रिया में सरकारी अधिकारियों की संलिप्तता और हस्तक्षेप को लेकर भी चिंता जताई। बेंच ने कहा कि ऐसा लगता है कि कानून इसलिए बनाया गया है कि किसी के धर्म परिवर्तन करने की प्रक्रिया में सरकारी मशीनरी के दखल को बढ़ाया जा सके। हालांकि अदालत ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि यूपी के धर्मांतरण विरोधी कानून की वैधता पर फिलहाल अदालत विचार नहीं कर सकती।

बेंच ने यह भी याद दिलाया कि भारत एक सेकुलर देश है और कोई भी अपनी इच्छा के अनुसार धर्मांतरण कर सकता है। बेंच ने कहा, ‘इस मामले में उत्तर प्रदेश धर्मांतरण अधिनियम के प्रावधानों की संवैधानिक वैधता पर विचार करना हमारे दायरे में नहीं आता। फिर भी हम यह मानने से खुद को नहीं रोक सकते कि धर्मांतरण से पहले और बाद में घोषणा से संबंधित नियम जो बनाए गए हैं, वह किसी व्यक्ति की ओर से दूसरे धर्म को अपनाने की औपचारिकता कठिन करने वाले हैं। यह स्पष्ट है कि इन नियमों के माध्यम से धर्मांतरण की प्रक्रिया में अधिकारियों का दखल बढ़ा दिया गया है। यहां तक कि जिला मजिस्ट्रेट को कानूनी रूप से धर्मांतरण के प्रत्येक मामले में पुलिस जांच का निर्देश देने के लिए बाध्य किया गया है।’


इसके अलावा अदालत ने धर्मांतरण के बाद घोषणा करने की अनिवार्यता पर भी सवाल उठाया। बेंच ने कहा कि कौन किस धर्म को स्वीकार कर रहा है, यह उसका निजी मामला है। इस संबंध में घोषणा करने की बाध्यता तो निजता के खिलाफ है। बेंच ने कहा, ‘यह सोचने की बात है कि आखिर क्या जरूरत है कि कोई बताए कि उसने अपना धर्म परिवर्तन कर लिया है और अब वह किस मजहब को मानता है। इस पर विचार करने की जरूरत है कि क्या यह नियम निजता के प्रावधान का उल्लंघन नहीं है।’

अदालत ने कहा- संविधान के मूल ढांचे में धर्मनिरपेक्षता शामिल
राज्य में धर्मांतरण की कठोर प्रक्रिया को लेकर बेंच ने कहा कि यह ध्यान देना जरूरी है कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना और धर्मनिरपेक्ष प्रकृति क्या कहती है। अदालत ने कहा कि हमारे संविधान की प्रस्तावना अत्यंत महत्वपूर्ण है और संविधान को उसकी ‘महान और दिव्य’ दृष्टि के पढ़ना चाहिए। उसके अनुसार ही व्याख्या होनी चाहिए। न्यायालय ने यह भी रेखांकित किया कि यद्यपि ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द 1976 में एक संशोधन के माध्यम से संविधान में जोड़ा गया था, फिर भी धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूल ढांचे का एक अभिन्न अंग है, जैसा कि 1973 के केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के निर्णय में कहा गया था।

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