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टीआरपी मुक्त खबरें क्यों नहीं ?

– रंजना मिश्रा

आम दर्शक तो टीवी पर केवल सच्ची और साफ-सुथरी खबरें ही देखना चाहते हैं, किंतु टीआरपी की होड़ ने आज न्यूज़ चैनलों की पत्रकारिता को इतने निचले स्तर पर ला दिया है कि अब अधिकतर न्यूज़ चैनलों पर सही न्यूज़ की जगह फेक न्यूज़ और डिबेट के रूप में हो-हल्ला ही देखने-सुनने को मिलता है। सभी चैनल यह दावा करते हैं कि हम ही नंबर वन हैं। अभी हाल ही में देश के दो बड़े न्यूज़ चैनलों पर टीआरपी से छेड़छाड़ के आरोप लगे हैं। टीआरपी की इस होड़ ने न्यूज़ चैनलों की पत्रकारिता का स्तर इतना अधिक गिरा दिया है कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ यानी मीडिया से आम लोगों का भरोसा कम होता जा रहा है।

हर हफ्ते गुरुवार के दिन टीआरपी यानी टेलीविज़न रेटिंग प्वाइंट जारी करने वाली संस्था बार्क (ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल) ने यह घोषणा कर दी है कि अगले 8 से 12 हफ्ते तक अलग-अलग न्यूज़ चैनलों के टीआरपी के आंकड़े जारी नहीं किए जाएंगे। इनमें हिंदी न्यूज़ चैनल, इंग्लिश न्यूज़ चैनल, बिजनेस न्यूज़ चैनल और क्षेत्रीय भाषाओं के सभी न्यूज़ चैनल शामिल हैं। बार्क का कहना है कि इस दौरान उनकी तकनीकी टीम टीआरपी मापने के मौजूदा मानदंडों की समीक्षा करेगी और जिन घरों में टीआरपी मापने वाले मीटर लगे हैं, वहां हो रही किसी भी प्रकार की धांधली और छेड़छाड़ को रोकने की कोशिश करेगी।

कुछ न्यूज़ चैनलों द्वारा किए गए कथित टीआरपी घोटाले के कारण दो से तीन महीनों के लिए टीआरपी को रोक दिया गया है। अब सवाल यह उठता है कि दो से तीन महीनों तक न्यूज़ चैनलों की टीआरपी की गतिविधियों को रोककर मीडिया को साफ-सुथरा करने की जो कोशिश की जा रही है, क्या वो सच में कामयाब होगी? जिस चैनल की टीआरपी जितनी ज्यादा होती है उसे उतने ही ज्यादा और महंगे विज्ञापन मिलते हैं। टेलीविजन के सभी चैनलों के मुकाबले न्यूज़ चैनलों की भागीदारी बहुत कम है, किंतु दर्शकों पर इनका प्रभाव सबसे ज्यादा होता है। देश के केवल 44 हजार घरों में ही टीआरपी मापने के मीटर लगे हैं, तो सवाल यह भी है कि केवल इतने घरों में लगे टीआरपी मापने के मीटर पूरे देश की टीआरपी कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं? घोटाले के आरोपों के मुताबिक इन घरों में से कुछ घरों को कुछ रुपए देकर टीआरपी के आंकड़ों से छेड़छाड़ की गई है।

आजकल अधिकतर न्यूज़ चैनल डिबेट दिखाते हैं, क्योंकि डिबेट में टीवी का दर्शक उस न्यूज़ चैनल पर अपना ज्यादा समय खर्च करता है और जिससे उसकी टीआरपी बढ़ जाती है। आजकल ग्राउंड रिपोर्ट न्यूज़ चैनलों से धीरे-धीरे गायब ही होती जा रही है, क्योंकि अब कोई न्यूज़ चैनल ग्राउंड रिपोर्टिंग में मेहनत और पैसा खर्च करना नहीं चाहता और ना ही अपने रिपोर्टरों को बाहर भेजना चाहता है।

अब सवाल यह है कि टीआरपी मापने की जो व्यवस्था फिलहाल लागू है, वो क्या वास्तव में सही है? क्या यह व्यवस्था सच्ची और साफ-सुथरी खबरें दिखाने वाले न्यूज़ चैनलों के लिए उपयोगी है? जवाब है नहीं। यदि ये न्यूज़ चैनल डिबेट करना बंद कर दें, मनोरंजक खबरें देने की बजाय सच्ची और साफ-सुथरी खबरें दिखाना शुरू कर दें तो उनकी टीआरपी निश्चित ही बहुत नीचे आ जाएगी। जिससे विज्ञापनदाता उन चैनलों को विज्ञापन देना बंद कर देंगे और विज्ञापन न मिलने के कारण, उन चैनलों को अपने रिपोर्टरों को तनख्वाह देना भी मुश्किल हो जाएगा और इस कारण उन न्यूज़ चैनलों को फिर से डिबेट और सस्ती खबरों को दिखाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। डिबेट और सस्ती, मनोरंजक खबरें चैनल की टीआरपी को बढ़ा देंगे, जिससे आगे लोगों को यह भरोसा हो जाएगा कि यही मॉडल सही है।

न्यूज़ चैनलों के न्यूज़ रूम में बैठे प्रोग्राम एडिटर और पत्रकारों के दिमाग में न्यूज़ बनाते समय केवल एक ही बात ध्यान में रहती है कि कौन-सा प्रोग्राम और न्यूज़ ज्यादा टीआरपी लाएगा। अब आवश्यकता है कि टीआरपी की इस अंधी दौड़ को छोड़कर, न्यूज़ चैनलों का उद्देश्य, दर्शकों तक जरूरी खबरें और सूचनाएं पहुंचाना होना चाहिए, न कि मनमर्जी की खबरें दिखाना। यह खबरें रिसर्च और ग्राउंड रिपोर्टिंग पर आधारित होनी चाहिए, यही पत्रकारिता का सच्चा धर्म है।

(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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