एक दूसरे के सहयोग के बिना हमारी पहचान नहीं बन सकती

  • इतिहासविद् नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने अभा सद्भावना व्याख्यानमाला में विचार व्यक्त करते हुए कहा

उज्जैन। लोक और कला सब कुछ समेट लेने की दृष्टि है। यह अपने आप में संवाद की दृष्टि है और नैसर्गिकता की दृष्टि है। हम भले ही विभिन्न जातियों, रहन-सहन के कारण विविधताएं रखते हैं किंतु फिर भी एक दूसरे पर आश्रित हुए बिना हमारी पहचान नहीं बन सकती।

यह बात भारतीय ज्ञानपीठ परिसर में आयोजित स्व. शिव मंगलसिंह सुमन स्मृति सद्भावना व्याख्यानमाला में इतिहासविद् नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने कही। उन्होंने कहा कि यही हमारी विशेषता है और यह विशेषता भारतीय लोक में स्पष्ट दिखाई देती है। भारतीय लोक का स्वरूप पारस्परिक साझेदारी का है, जबकि पाश्चात्य में ऐसा नहीं है। वहां फोक को ही लोक कहा जाता है, जबकि फोक तो वहां के असंस्कृत समाज का प्रतिनिधित्व करता है। हमारे यहां पोर्र्टे्रट जैसा शब्द नहीं है किंतु व्यक्ति-चित्र शब्द है। निश्चित रूप से पाश्चात्य वाला पोर्र्टे्रट व्यक्ति प्रमुख होता है, क्योंकि वहां व्यक्ति के बलिष्ठ होने को सर्वोपरि माना जाता है, जबकि हमारे यहां लोक को सर्वोपरि माना जाता है। भारतीय कला में शौष्ठव पर अधिक बल दिया गया है। हमारी कलाओं ने जो अभिव्यक्त किया है उसके अनुसार राम की पहचान बिना धनुष के नहीं बनती, कृष्ण की पहचान मुरली के बिना नहीं बनती, महावीर बुद्ध की पहचान मस्तक के पीछे वलय के बिना नहीं बनती। हमारे यहां चित्रों में, शिल्पों में, संगीत में, गायन में, भित्ति -चित्रों में या अन्य कलाओं में भारतीय लोक के दर्शन होते हैं। समारोह की अध्यक्षता विवि के कुलानुशासक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा ने की। उन्होंने कहा कि भारतीय लोक का अपना शास्त्र है, अपनी ही दृष्टि है और अपना ही ज्ञान है। हमारी लोक और कलादृष्टि यथार्थ रूप से प्रस्तुतिकरण नहीं करती बल्कि वह हमारे हृदय और आत्मा को प्रभावित करने पर विश्वास करती है। व्याख्यानमाला को सुनने के लिए पूर्व कुलपति प्रो. बालकृष्ण शर्मा, साहित्यकार डॉ. शिव चौरसिया, श्रीराम दवे, डॉ. पिलकेंद्र अरोरा, डॉ.देवेंद्र जोशी, प्रो. एच. एल. माहेश्वरी, डॉ.नंदकिशोर श्रीवास्तव, संतोष सुपेकर, योगेश पोरवाल, डॉ. रश्मि शर्मा, मयूरी बैरागी, श्रीमती मोनिका श्रीवास्तव सहित बड़ी संख्या में बौद्धिकजन और पत्रकार उपस्थित थे।

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