एक राष्ट्र-एक चुनाव पर बहस का कोई मतलब नहीं

– राजीव खंडेलवाल

एक राष्ट्र-एक चुनाव फिलहाल ‘शिगूफा’ से कम नहीं। प्रश्न क्या ‘एक राष्ट्र एक चुनाव नीति’ को लागू करना जरूरी है, उससे पहले यह यक्ष प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या सरकार वास्तव में इस संबंध में गंभीर है? यदि वास्तव में कोई संशोधन बिल लाना ही चाहती होती तो, सरकार उक्त उद्देश्य को इस विशेष सत्र बुलाने की घोषणा में समावेश कर लेती। जैसा कि पूर्व में जब-जब विशेष सत्र बुलाए गए हैं, तो उनके उद्देश्य घोषित किए गए थे। तदनुसार संसद में उन विषयों पर कार्यवाही भी हुई। चूंकि वर्तमान में कोई उद्देश्य (एजेंडा) घोषित किए बिना बुलाए इस विशेष सत्र में सरकार इस संबंध में कोई विधेयक लाएगी, इसकी संभावना इसलिए भी नगण्य सी लगती है, जब सरकार ने इस संबंध में एक कमेटी बना ही दी है, तब उसकी रिपोर्ट/सिफारिश आने तक तो इंतजार करना ही होगा। यह रिपोर्ट 15 दिन के अंदर आ जाए, ऐसा संभव लगता नहीं है। क्योंकि इस कमेटी का कार्यकाल का समय निश्चित नहीं किया गया है। दूसरा संसदीय मंत्री का यह कथन कि कमेटी की रिपोर्ट आएगी। फिर चर्चा होगी। परन्तु उन्होंने भी यह नहीं कहा कि इसी ‘विशेष सत्र’ में ही चर्चा होगी। इसलिए मीडिया या विपक्ष का इस संबंध में हंगामा खड़ा करना उचित नहीं है। वैसे भी यूनिफार्म सिविल कोड को लेकर सरकार ने विस्तृत जनचर्चा कराई व मीडिया ने खूब सुर्खियां भी बटोरी। परन्तु आज वह ‘कोड’ संसद में किस कोने पर है? कहने की आवश्यकता नहीं है।

‘हर शख्स बुद्धिमान है, जब तक वह बोलता नहीं’, इस सिद्धांत के धुर विरोधी राहुल गांधी के इस संबंध में दिए गए बयान की बात कर लेते हैं। देश की विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस जो ‘इंडिया’ को लीड करती हुई दिख रही है, के सर्वोच्च प्रभावशाली नेता राहुल गांधी का यह कथन की ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ ‘संघवाद पर चोट है’ न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है बल्कि यह उनकी समझ पर भी ‘प्रश्न वाचक चिह्न’ लगाता है, जैसा की उनकी भारत यात्रा के पूर्व कई अवसरों पर लगाया जाता रहा है। प्रश्न यह है कि क्या केंद्रीय सरकार ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ के द्वारा कोई नई चीज ला रही है, नई बात कह रही है? बिल्कुल भी नहीं। राहुल गांधी आलोचना में कभी इतने अंधे हो जाते हैं कि जब वे इस मुद्दे पर आलोचना करते हुए यह कह जाते हैं की यह ‘संघवाद पर आघात’ है, तो वे यह भूल जाते हैं कि वर्ष 1952 से लेकर 1967 तक हुए चुनाव ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ के तहत ही हुए थे। तब समस्त समय कांग्रेस की सरकार ही थी। क्या तब भी वह संघवाद पर आघात था? ‘हंसुआ के ब्याह में खुरपी के गीत गाने वाले’ कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने विरोध करते हुए कहा कि मोदी सरकार चाहती है कि लोकतांत्रिक भारत धीरे-धीरे तानाशाही में तब्दील हो जाए। एक राष्ट्र, एक चुनाव पर समिति बनाने की ये नौटंकी भारत के संघीय ढांचे को खत्म करने का एक हथकंडा है। ‘हमारे घर आओगे क्या लाओगे, तुम्हारे घर आएंगे क्या खिलाओगे’ के आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक और दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने कहा कि देश के लिए क्या जरूरी है, वन नेशन वन इलेक्शन या वन नेशन वन एजुकेशन (अमीर हो या गरीब, सबको एक जैसी अच्छी शिक्षा), वन नेशन वन इलाज (अमीर हो या गरीब, सबको एक जैसा अच्छा इलाज), आम आदमी को वन नेशन वन इलेक्शन से क्या मिलेगा।

यह कोई नई नीति नहीं, पूर्व प्रचलित प्रणाली ही है। मैं पहले ही कह चुका हूं कि ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ कोई ‘नया सिद्धांत’ ‘नीति’ या ‘प्रणाली’ नहीं है। बल्कि वर्ष 1952 से लेकर वर्ष 1967 तक वर्तमान (समय-समय पर संशोधन) जनप्रतिनिधित्व कानून के अंतर्गत ही इस देश में इसी नीति के तहत सफलतापूर्वक चुनाव होते रहे हैं। इसलिए इस नीति के ‘गुण’ (मेरिट) पर न तो कोई आपत्ति की जा सकती है और नहीं कोई विवाद हो सकता है। इस नीति को पुनः धरातल पर उतारने से न केवल समय की बचत होगी, बल्कि भारी धन अपव्यय होने से भी बचेगा। क्योंकि जब स्थानीय निकायों से लेकर विधानसभा, लोकसभा के चुनाव होते हैं, तब दो-ढाई महीने पूर्व से चुनाव की तारीख की घोषणा के साथ ही आचार संहिता लागू कर दी जाती है और सरकार को नीतिगत निर्णय लेने से चुनाव आयोग द्वारा रोक दिया जाता है। वैसे समय-समय पर विभिन्न राजनेता गण इसकी वकालत करते रहे हैं। चुनाव आयोग ने वर्ष 82-83 में एक साथ चुनाव कराने के संबंध में सुझाव दिए थे। दिसम्बर 2015 में संसद की स्थायी समिति ने अपनी 79वीं रिपोर्ट में 1999 की बीपी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाले ला कमीशन की 170 वीं रिपोर्ट के आधार पर दो चरणों में चुनाव करवाने की सिफारिश की थी? वर्ष 2017 में नीति आयोग ने भी एक साथ चुनाव का विश्लेषण क्या, क्यों और कैसे नाम से वर्किंग पेपर में किया था। वर्ष 2018 में जस्टिस बीएस चौहान की अध्यक्षता में गठित विधि आयोग ने भी संबंध में एक रिपोर्ट दी थी, जिसमें राजनीतिक दलों से विचार-विमर्श के साथ पांच संवैधानिक संशोधन करने की जरूरत बतलाई थी।

सरकार ने कमेटी की घोषणा जिस समय की है, उसकी ‘टाइमिंग’ को लेकर जरूर विपक्ष को बोलने का मौका दे दिया है। प्रश्न फिर वही कि वास्तव में क्या सरकार इस मुद्दे पर संजीदा है? क्योंकि यदि वास्तव में इसको धरातल पर उतारना है, तो कानून में संशोधन करने के पहले केंद्रीय सरकार का यह महत्वपूर्ण दायित्व बनता है कि वह ‘हंडिया चढ़ा कर नोन ढूंढने न निकले’ बल्कि पहले समस्त राज्य सरकारों से इस संबंध में बात कर ‘सहमति बनाने का प्रयास अवश्य करे’ और यदि सहमति बन जाती है, तब फिर कानून में कोई संशोधन करने की आवश्यकता ही उत्पन्न नहीं होगी। जैसा कि कहा जाता है कि ‘वक्र चंद्रमहि ग्रसहुं न राहु’। इसी वर्ष जुलाई 2023 में संसद में किरोड़ी लाल मीणा द्वारा पूछे गए प्रश्न के उत्तर में कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल का एक साथ चुनाव कराने के संबंध में यह जवाब था कि राजनीतिक दलों की आम सहमति के साथ देश का ‘संघीय ढांचा’ होने के कारण राज्यों के साथ सहमति बनाए जाने की आवश्यकता है। साथ ही ऐसा किए जाने पर कई हजार करोड़ का खर्चा ‘ईवीएम’ बढ़ जाएगा। जबकि ‘एक साथ चुनाव’ के पीछे का मुख्य उद्देश्य समय-धन कम करना ही बताया जा रहा है। वर्ष 1967 के बाद जब यह स्थिति उत्पन्न हुई है, जहां अधिकतर जगह केंद्र राज्यों के चुनाव अलग-अलग समय में होने लगे हैं, तो वह कानून में कोई परिवर्तन होने के कारण नहीं हुए हैं, बल्कि राजनीतिक परिस्थितियों के घटने के कारण वैधानिक रूप से उत्पन्न हुए हैं।

आम सहमति न होने के की स्थिति में संवैधानिक संशोधन कर एक साथ लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक या दो चरण में कराने के बावजूद क्या भविष्य में भी यही स्थिति हमेशा रह पाएगी? देश की राजनीतिक स्थिति को देखते हुए यह बिल्कुल भी संभव नहीं है। भविष्य में केंद्र या राज्यों की सरकारें किसी भी कारण से गिरने से या भंग किए जाने की स्थिति में यह चक्र टूटना लाजमी है। क्योंकि यह कानून नहीं बनाया जा सकता कि एक बार चुनी गई सरकार पांच साल की पूर्ण अवधि पूरा करेगी। चाहे संसद या विधानसभा में बहुमत हो अथवा नहीं। अथवा उनकी संसद या विधानसभा भंग करने की सिफारिश नहीं मानी जाएगी? हमारे देश में संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली है। अमेरिका के समान राष्ट्रपति प्रणाली नहीं है, जहां राष्ट्रपति प्रतिनिधि सभा या सीनेट के प्रति जिम्मेदार नहीं होता है। वैसे यह राज्य सरकार की नहीं बल्कि केन्द्र सरकार की समस्या ज्यादा है। तब फिर इस तरह की कवायद करने का अर्थ क्या है?

वैसे भारत निर्वाचन आयोग को यह अधिकार है कि वह चुनाव को निर्धारित समय के साथ छह महीने पहले या छह महीने बाद तक करा सकता है। यदि चुनाव आयोग के इस अधिकार क्षेत्र को छह महीने की जगह एक साल का अधिकार दे दिया जाए तो वह समस्त समस्या का व्यावहारिक हल यथासंभव उक्त ‘गोल’ के निकट तक निकाल सकता है।

(लेखक, वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व सुधार न्यास अध्यक्ष हैं।)

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