
नई दिल्ली (New Delhi) । मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) में भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने चुनावी रण के लिए बदलावों से ज्यादा वरिष्ठ नेताओं को चुनावी मुहिम (election campaign) में आगे बढ़ाने की नीति अपनाई है। राज्य में भाजपा को लगभग दो दशक की सत्ता बरकरार रखने के लिए विपक्षी कांग्रेस (Congress) से कड़ी चुनौती मिल रही है। हालांकि पार्टी के रणनीतिकारों को भरोसा है कि संगठन की दृष्टि से सबसे मजबूत इस राज्य में वह अपने कार्यकर्ताओं की मजबूत टीम व जनता तक पहुंची राज्य व केंद्र की योजनाओं से सफलता हासिल करेगी।
भाजपा नेतृत्व ने मध्य प्रदेश में चुनावी रणनीति में बड़े बदलावों से बचते हुए अनुभवी चुनावी टीम को उतारा है। प्रदेश के वरिष्ठ नेता व केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को चुनाव प्रबंधन समिति का संयोजक बनाया है, ताकि राज्य में सभी बड़े नेताओं को साध कर चुनावी काम में पूरी ताकत से लगाया जाए। हालांकि तोमर के सामने अपने गृह क्षेत्र ग्वालियर चंबल संभाग की बड़ी चुनौती है, जहां पार्टी को सिंधिया खेमे से नेताओं व कार्यकर्ताओं के साथ सामंजस्य के लिए कई मोर्चों पर काम करना पड़ रहा है।
भाजपा ने अपनी मजबूत चुनावी टीम के रूप में केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव व अश्विनी वैष्णव को उतारा है। पिछले चुनाव में प्रभारी रहे धर्मेंद्र प्रधान राज्य से सांसद होने से इस टीम के साथ ही जुड़े हैं। हालांकि संगठन प्रभारियों मुरलीधर राव व सह प्रभारी पंकजा मुंडे व रमाशंकर कठेरिया की टीम में उतना सामंजस्य नहीं है। पंकजा मुंडे कम सक्रिय हैं। ऐसे में क्षेत्रीय प्रभारी अजय जामवाल व संयुक्त संगठन मंत्री शिवप्रकाश पर दबाव बढ़ा है। हालांकि पार्टी नेताओं का कहना है कि मध्य प्रदेश संगठन का राज्य है। कार्यकर्ताओं में नाराजगी भले ही हो, लेकिन मौके पर सब एकजुट होकर ही काम करते हैं।
दरअसल भाजपा के लिए विपक्षी कांग्रेस की भी चुनौती इस बार बढ़ी है। आम तौर पर खेमेबाजी से जूझने वाली कांग्रेस इस समय काफी एकजुट है। पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ व दिग्विजय सिंह के बीच बेहतर तालमेल भी दिख रहा है। भाजपा व कांग्रेस दोनों ही दलों के प्रमुख नेताओं का कहना है कि राज्य में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण टिकट वितरण होगा। सामाजिक व राजनीतिक समझ के साथ जो दल टिकट तय करेगा, उसका पलड़ा भारी रहेगा।
गौरतलब है कि बीते 2018 के चुनाव नतीजे आने के बाद से ही भाजपा में अंदरूनी तौर पर काफी सरगर्मी रही है। सबसे पहले तो कांग्रेस से पिछड़ने के बाद सत्ता गंवाने को लेकर शिवराज सिंह के नेतृत्व पर सवाल उठे। इसके बाद जब कांग्रेस की टूट से फिर से सरकार बनी तो एक वर्ग को फिर से शिवराज को कमान सौंपना भी रास नहीं आया। कांग्रेस से आए ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व वाले धड़े को लेकर भी समस्याएं उठती रही है। ऐसे में पार्टी को अंदरूनी तौर पर एक साथ कई मोर्चों को संभालना पड़ रहा है। राज्य की 230 सदस्यीय विधानसभा में पिछली बार भाजपा को 109 व कांग्रेस को 114 सीटें मिली थी। दो सीटें बसपा, एक सपा व चार निर्दलीय जीते थे।
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