
नई दिल्ली. इस साल के अंत तक बिहार विधानसभा (Bihar Legislative Assembly) के चुनाव (Election) होने हैं और चुनावी साल की शुरुआत ही सियासी गर्माहट से भरी है. पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पाला बदलने की अटकलों ने जोर पकड़ा तो अब केंद्रीय मंत्री जीतनराम मांझी (Jitan Ram Manjhi ) के बयान से सियासी पारा हाई है. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री मांझी ने पहले जहानाबाद और फिर मुंगेर में सार्वजनिक मंच से भारतीय जनता पार्टी (BJP) की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) को आंखें दिखाई, कैबिनेट छोड़ने की बात कह दी. मामले ने सियासी रंग लिया और मांझी के गठबंधन छोड़ने के कयास तेज हुए तो पीएम मोदी के प्रति पूर्ण समर्पण का ऐलान करते हुए अब एनडीए के मजबूती के साथ चुनाव मैदान में उतरने की बात कह रहे हैं.
मांझी ने रामचरित मानस की चौपाई ‘भय बिनु होय ना प्रीत…’ का जिक्र किया और स्पष्ट कहा कि हम फरियाना नहीं चाहते कि हमको इतनी सीट दे दो लेकिन कहते हैं कि वजूद के आधार पर सीट दो. उन्होंने लोगों से सीधे मुखातिब होते हुए कहा कि हमको कोई फायदा नहीं है. आपके (लोगों के) फायदे के लिए कह रहे हैं. लगता है हमको कैबिनेट छोड़ना पड़ेगा. बिहार के पूर्व सीएम मांझी ने लगे हाथ 40 सीटों के लिए दावेदारी भी कर दी. उन्होंने कहा कि हमारे लोग कह रहे हैं 40 सीट चाहिए ताकि हम 20 सीट जीत सकें. उन्होंने दावा किया कि अगर पार्टी इतनी सीटें जीतती है तो हम सारे काम अपनी नीति के हिसाब से करा लेंगे. हम तो लोगों के लिए काम करना चाहते है.
मुंगेर के कार्यक्रम से पहले जहानाबाद में भी मांझी ने कुछ ऐसे ही तेवर दिखाए थे और एनडीए में उपेक्षा किए जाने की बात कही थी. उन्होंने बिहार चुनाव में अपनी औकात दिखाने की बात भी कही थी. हालांकि, मांझी ने एक सवाल के जवाब में एनडीए से नाराजगी की अटकलों को खारिज करते हुए यह भी कहा था कि अगर हमको चार रोटी की भूख है और एक भी रोटी नहीं देंगे तो हम गार्जियन से मांगेंगे नहीं? वही मेरी मांग है. केंद्रीय मंत्री जीतनराम मांझी के बेटे और नीतीश सरकार में मंत्री संतोष सुमन ने भी कहा है कि कोई मनमुटाव नहीं है. हम बिहार में एक साथ लड़ेंगे और नीतीश कुमार फिर से सीएम बनेंगे. हम एनडीए के साथ हैं और रहेंगे. बिहार के विकास के लिए कुर्बानी देनी होगी तो हम देंगे.
पहले नाराजगी, अब समर्पण के पीछे क्या
जीतनराम मांझी की इमेज बेबाक राजनेता की है. वह बेबाकी से अपनी बात रखने के लिए जाने जाते हैं. लेकिन अब पहले नाराजगी और फिर अब पूर्ण समर्पण जताने के बाद यह चर्चा छिड़ गई है कि क्या ये मांझी के बेबाक बोल हैं या रणनीति? इसे चार पॉइंट में समझा जा सकता है.
बिहार चुनाव से पहले बार्गेनिंग
पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी केंद्र में मंत्री हैं लेकिन उनका और उनकी पार्टी की पॉलिटिक्स बिहार केंद्रित ही रही है. मांझी की पार्टी विधानसभा चुनाव में 40 सीटों के लिए दावेदारी कर रही है लेकिन नीतीश कुमार की अगुवाई वाली जनता दल (यूनाइटेड) और बीजेपी जैसी बड़ी पार्टियों की मौजूदगी के कारण इतनी सीटें मिल पाना मुश्किल ही माना जा रहा है. ऐसे में मांझी के हालिया तेवरों को अधिक से अधिक सीटें पाने के लिए प्रेशर पॉलिटिक्स के तौर पर भी देखा जा रहा है.
चिराग पासवान का बढ़ता प्रभाव
जीतनराम मांझी के तेवरों के पीछे एक वजह चिराग पासवान का गठबंधन में बढ़ता प्रभाव भी बताया जा रहा है. चिराग पासवान और जीतनराम मांझी, दोनों ही दलित पॉलिटिक्स का चेहरा हैं. बिहार की सियासत में जातीय फैक्टर भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और मांझी मुसहर जाति से आते हैं जो महादलित कैटेगरी में आती है और चिराग की पासवान जाति दलित वर्ग में.
आंकड़ों के अंकगणित में देखें तो पासवान जाति की भागीदारी बिहार की आबादी में 5.311 फीसदी है और मुसहर की करीब तीन फीसदी. जाति जनगणना के आंकड़ों की मानें तो बिहार में कुल 19 फीसदी दलित आबादी है और इन दोनों ही नेताओं की सियासत का आधार यही दलित वोटबैंक है. ऐसे में चिराग का गठबंधन में बढ़ता प्रभाव भी अंदरखाने मांझी की चिंता की एक वजह हो सकता है.
मांझी की पार्टी पर भारी एलजेपीआर
जीतनराम मांझी की पार्टी पर चिराग की एलजेपीआर भारी पड़ती रही है. पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव की ही बात करें तो मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (लोकतांत्रिक) को चुनाव लड़ने के लिए केवल एक सीट मिली थी गया की सीट जहां से खुद जीतनराम मांझी सांसद हैं. वहीं, चिराग की पार्टी के हिस्से पांच सीटें आई थीं. इसके अलावा बिहार से सटे झारखंड में भी मांझी की पार्टी खाली हाथ रह गई थी जबकि चिराग की पार्टी वहां भी गठबंधन के तहत चुनाव लड़ने के लिए एक सीट लेने में सफल रही थी. दिल्ली में भी चिराग की पार्टी एक सीट पर चुनाव लड़ रही है.
बेटे को स्थापित करने की कोशिश
जीतनराम मांझी की कोशिश अपने बेटे संतोष सुमन को बिहार की पॉलिटिक्स में स्थापित करने की है. इसमें सबसे बड़ी चुनौती दलित पॉलिटिक्स की पिच पर उनके लिए चिराग पासवान और उनकी पार्टी ही है. यह भी एक वजह हो सकती है कि मांझी कई मौकों पर चिराग से उलट लाइन पर खड़े नजर आए हैं. कोटा के भीतर कोटा को लेकर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी मांझी ने स्वागत किया था, समर्थन किया था जबकि चिराग इसके विरोध में उतर आए थे.
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