ब्‍लॉगर

आजाद का शैक्षिक स्वप्न और आज का सत्य

राष्ट्रीय शिक्षा दिवस (11 नवम्बर) पर विशेष

– गिरीश्वर मिश्र

मौलाना अबुल कलाम आजाद ने देश के प्रथम शिक्षा मंत्री के रूप में संस्कृति और सभ्यता के व्यापक सन्दर्भ में समग्र भारत के लिए शिक्षा का स्वप्न देखा था। उनकी जन्मतिथि को राष्ट्रीय शिक्षा दिवस के रूप में स्मरण करते हुए हमारी दृष्टि आधुनिक भारत में शिक्षा के आरंभिक ढाँचे पर जाती है। मूलत: इस्लामी पृष्ठभूमि में शिक्षा-दीक्षा के बावजूद मौलाना भारत और आधुनिक पश्चिमी ज्ञान परम्परा से भलीभांति परिचित थे। स्वातंत्र्य आन्दोलन में उन्होंने अविभाजित भारत की तरफदारी की थी और यहाँ की सांस्कृतिक विरासत और भारतीयता के गौरव बोध को भी उन्होंने अनेक अवसरों पर व्यक्त किया था। विभाजन की पीड़ा उन्हें सालती थी। इसे वह राजनैतिक हार मानते थे पर वे सांस्कृतिक हार के लिए तैयार न थे।

एक कवि, विद्वान, पत्रकार और राजनेता मौलाना भारत की अंतरिम सरकार में 1947 में शिक्षा मंत्री बने और देश के भविष्य-निर्माण की प्रक्रिया से जुड़ गए। नेहरू जी के नेतृत्व में 1958 तक शिक्षा मंत्री की जिम्मेदारी निभाई। स्वतन्त्र भारत में शिक्षा का आयोजन कैसे किया जाय इसके लिए तथ्यों पर आधारित विचार करने के लिए विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग, प्राथमिक शिक्षा पर खेर समिति और माध्यमिक शिक्षा आयोग का काम उन्होंने शुरू कराया। इनके द्वारा तमाम तथ्य जुटाए गए और भारत के लिए शैक्षिक नीति के विकास के लिए आधार तैयार हुआ। साथ ही आवश्यक व्यवस्थाओं का निर्माण और संस्थाओं की स्थापना का काम भी शुरू हुआ।

मौलाना के सामने प्रमुख सवाल था कि व्यापक लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों के साथ शिक्षा कैसे दी जाय? इसके लिए क्या कदम उठाए जाय? मौलाना शिक्षा को एशिया की सबसे बड़ी चुनौती मानते थे और उनकी दृष्टि में अंतरराष्ट्रीय शान्ति के लिए यह बेहद जरूरी आवश्यकता थी। वे ‘सामाजिक शिक्षा’ के जबरदस्त पक्षधर थे जिसके तहत नागरिक अधिकार और कर्तव्य की शिक्षा और आम जनता में एक तरह की शिक्षित मानसिकता का व्यापक पैमाने पर विकास हो सके। वे साहस, उदार नजरिया, सहिष्णुता और एकता पर बल देते थे और ऐसी समाज व्यवस्था को स्थापित करने के लिए प्रतिश्रुत थे जिसमें सामाजिक न्याय, सहयोग, उदार मानसिकता और तर्क बुद्धि से काम किया जाता हो। इस लक्ष्य को पाने के लिए उन्होंने अच्छी शिक्षा को संपत्ति और संसाधनों से ज्यादा महत्त्व दिया। इसके बावजूद कि स्वयं मौलाना को औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी वे एक परिपक्व दृष्टि से संपन्न थे और स्वतन्त्र भारत के लिए एक उदार और समावेशी शिक्षा की वकालत की। भारत में विभिन्न संस्कृतियों और जीवन शैलियों के विकास के इतिहास को देखते हुए वह विविधता में एकता पर बल दे रहे थे। वस्तुत: ‘एकं सद विप्रा: बहुधा वदन्ति’ के विचार को पहचानते हुए वे सत्य के प्रति बहुलता की दृष्टि के हिमायती थे। सामान्य और सामाजिक शिक्षा के उपक्रम में इस बात को सतत स्मरण रखना जरूरी है। इस काम में शिक्षक की ख़ास भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

आजाद की शैक्षिक दृष्टि उनके जीवन-दर्शन से जुड़ी थी। उनके लिए शिक्षा से मानवीय क्षमताओं का विकास होता है और मानवीय जीवन जीना संभव हो पाता है। वे मानते थे कि शिक्षा हर किसी का जन्मसिद्ध अधिकार है और इसे पूरा करना सरकार का अनिवार्य कर्तव्य है। शिक्षा देने का मुख्य उद्देश्य विद्यार्थियों और उनके माध्यम से पूरे समाज में मूल्यों और आदर्शों को स्थापित करना है। आजाद यह भी मानते थे कि सद्य: स्वतन्त्र हुए देश के लिए सामाजिक शिक्षा की व्यवस्था बहुत जरूरी है। इसके अंतर्गत साक्षरता, नागरिक के अधिकार-कर्तव्य की जानकारी और आमजन में शिक्षित मानसिकता का विकास हो सके इसके लिए उन्होंने विशेष कार्यक्रम भी शुरू किया था। इसी तरह राष्ट्रीय विकास को ध्यान में रखते हुए विज्ञान और प्रौद्योगिकी की शिक्षा के विकास के लिए उन्होंने कई कदम उठाए। राष्ट्रीय एकता और सर्वधर्म समभाव के विकास को पाठ्यचर्या स्थान देने के लिए प्रयास किया। वे वैश्विक स्तर पर एकता और समझदारी के लिए शिक्षा में व्यापक दृष्टि को प्रोत्साहित कर रहे थे।

मौलाना शिक्षा के लोकतंत्रीकरण में विश्वास करते थे। माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा तक सबको पहुंचाना चाहते थे और प्रौढ़ शिक्षा और स्त्री शिक्षा पर भी बल दिया। जाति तथा वर्ग के शोषण से मुक्ति के लिए वे शिक्षा के अवसरों की समानता को बेहद जरूरी मानते थे। राज्य की भाषा, हिन्दी और अंग्रेजी के साथ त्रिभाषा के सूत्र को भी उन्होंने समर्थन दिया था। वे पूरे देश में मजबूत प्राथमिक शिक्षा चाहते थे। देश की जरूरतों को देखते हुए गांधीवादी मूल्यों के विकास, अध्यापक-प्रशिक्षण, पुस्तकालयों का विस्तार, हिंदी तथा अन्य भाषाओं का विकास, दिव्यांगों और अनुसूचित तथा जनजाति के विद्यार्थियों के लिए सहायता, युवक कल्याण और शारीरिक शिक्षा आदि तमाम क्षेत्रों में आधारभूत व्यवस्था शुरू करने का काम उनकी देखरेख में आरम्भ हुआ। अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद् को पुनर्संगठित कर अनेक तकनीकी संस्थाओं के आरम्भ का मार्ग प्रशस्त किया।

अध्यापकों में सेवा और राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना के विकास के साथ उनकी स्थिति को सुधारने की चिंता भी उन्हें थी। शिक्षक-प्रशिक्षण पर भी जोर दिया। उनके विचार व्यापक थे पर उनका कार्यान्वयन संसाधनों की अनुपलब्धता व राजनैतिक इच्छाशक्ति अभाव में समुचित ढंग से नहीं हो सका। शुरू में पंचवर्षीय योजना में शिक्षा को जगह नहीं मिली और मौलाना के जोर देने पर ध्यान गया पर पर्याप्त संसाधन नहीं मिले। मौलाना ने पुरानी विरासत और लालफीताशाही वाले सरकारी तौर तरीके को लेकर अपनी पीड़ा व्यक्त की थी। धीरे-धीरे संसाधन में सुधार हुआ है पर शिक्षा अभी भी देश की वरीयता नहीं बन सकी है और कई मोर्चों पर बदलाव की जरूरत महसूस की जा रही है।

अब देश के सामने एक नई शिक्षा नीति पेश हुई है जिसमें संरचना, प्रक्रिया और लक्ष्यों को लेकर महत्वपूर्ण संकल्प लिए गए हैं। आज विद्यार्थियों की संख्या, अभिरुचियों और सम्भावनाओं को लेकर चुनौतियों की जटिलता ज्यादा है पर एक आत्मनिर्भर और सशक्त भारत के निर्माण के लिए भारतीय समाज और संस्कृति की आकांक्षाओं का आदर करते हुए जरूरी बदलाव के साथ शिक्षा को जीवनदान देना ही होगा। शिक्षा का कोई दूसरा विकल्प नहीं है।

(लेखक महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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