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पाकिस्तान भी चांद पर भेजेगा ‘चंद्रयान’, चीन के रॉकेट में बैठकर जाएगा चंद्रमा पर

May 01, 2024

इस्लामाबाद: भारत (India) ने पिछले साल चंद्रमा (moon) पर अपना अंतरिक्ष यान चंद्रयान-3 (Chandrayaan-3) उतारा था। भारत ऐसा करने वाला चौथा देश बन गया था। भारत की कामयाबी देख पाकिस्तानी (Pakistani) भड़क गए और उन्होंने अपने नेताओं को लताड़ लगाई थी, जिसके बाद अब पाकिस्तान चांद पर जाने की तैयारी में हैं। हालांकि चंद्रमा तक पहुंचने में उसका कोई योगदान नहीं होगा। बल्कि वह चीन (China) के रॉकेट (rocket) में बैठकर चांद पर जाएगा। पाकिस्तान के ऐतिहासिक चंद्रमा मिशन का नाम आईक्यूब-क्यू (iCUBE-Q) है। शुक्रवार को चीन के चांग ई-6 मिशन के साथ यह लॉन्च होगा।


इंस्टीट्यूट ऑफ स्पेस टेक्नोलॉजी (IST) ने इस सैटेलाइट को चीन के शंघाई यूनिवर्सिटी SJTU और पाकिस्तान की राष्ट्रीय स्पेस एजेंसी सुपारको के सहयोग से डिजाइन और विकसित किया है। पाकिस्तान का यह उपकरण चांद पर नहीं उतरेगा, बल्कि उसकी कक्षा में ही रह जाएगा। आईक्यूब-क्यू ऑर्बिटर में चंद्रमा की सतह की तस्वीर खींचने के लिए दो ऑप्टिकल कैमरे लगे हैं। सफल परीक्षण के बाद अब इसे चांग ई 6 के साथ जोड़ दिया गया है। चांग ई-6 चीन के लूनर एक्सप्लोरेशन मिशन की छठी सीरीज है।

क्या है चांग ई-6 मिशन
चांग ई-6 मिशन चंद्रमा के सुदूर हिस्से में उतरेगा। यह वह हिस्सा है जो पृथ्वी से दिखाई नहीं देता। यहां चीन पहले भी उतर चुका है। लेकिन पहली बार होगा जब कोई देश यहां से चट्टान और मिट्टी का सैंपल धरती पर लाएगा।
चांग ई-6 मिशन 3 मई को चीन के हैनान द्वीप से लॉन्ग मार्च 5 रॉकेट से लॉन्च किया जाएगा।
यह अंतरिक्ष यान 53 दिनों की यात्रा करेगा और 2 किलोग्राम चट्टानों को पृथ्वी पर लाएगा।
चंद्रमा की चट्टानों का शोध करके वैज्ञानिकों को चांद और सौर मंडल के इतिहास को समझने में मदद मिलेगी।
चांग ई-5 मिशन के तहत चीन 2020 में चंद्रमा का सैंपल धरती पर ला चुका है।
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क्या होते हैं क्यूबसैट?
क्यूबसैट छोटे आकार के उपग्रह होते हैं। इनका निर्माण क्यूब के आकार में किया जाता है। वजन में यह कुछ किलोग्राम तक हो सकते हैं। अंतरिक्ष में इन्हें कई खास कामों के लिए भेजा जाता है। क्यूबसैट का प्राथमिक उद्देश्य स्पेस एक्सप्लोरेशन में वैज्ञानिक अनुसंधान, टेक्नोलॉजी विकास और शैक्षिक पहल को सुविधाजनक बनाना है। पृथ्वी के अवलोकन, रिमोट सेंसिंग, वायुमंडलीय अनुसंधान, संचार, खगोल विज्ञान और टेक्नोलॉजी प्रदर्शन के लिए इसका इस्तेमाल होता है। पारंपरिक उपग्रहों की तुलना में यह अपने छोटे आकार के कारण कम लागत में तैयार हो जाते हैं।

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