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सिद्धांतों के अनुरूप प्रणब मुखर्जी का आचरण

September 02, 2020

– डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी दशकों तक कांग्रेस के शीर्ष नेताओं में शुमार रहे। यह मुकाम उन्होंने अपनी योग्यता व प्रशासनिक कुशलता से हासिल किया था। उन्होंने सदैव सिद्धांतों को महत्व दिया, उसपर अमल किया। चाटुकारिता की संस्कृति से दूर रहे। शायद यही कारण था कि 2014 में कांग्रेस पार्टी ने उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनाया। अन्यथा उस समय की स्थिति में वह श्रेष्ठ विकल्प थे। इसके पहले राजीव गांधी से भी उनके मतभेद हुए थे। राजनीति में किसी के प्रति उनकी व्यक्तिगत दुर्भावना नहीं थी। विपक्ष के अनेक नेताओं से उनके बहुत अच्छे संबन्ध थे।

राजनीतिक सिद्धांत व देशसेवा का भाव उन्हें विरासत में मिला था। उनके पिता स्वतन्त्रा संग्राम सेनानी थे। देश की आजादी के लिए उन्होंने दस वर्ष अंग्रेजों की जेल यातना झेली थी। प्रणब मुखर्जी के प्रारंभिक जीवन में अनेक पड़ाव थे। वह क्लर्क, शिक्षक, पत्रकार और अधिवक्ता रहे। पांच दशक से अधिक समय वह राजनीति में रहे, देश के सर्वोच्च पद को सुशोभित किया। इसके पहले अनेक बार राज्यसभा और केंद्रीय मंत्रिपरिषद् के सदस्य रहे।

प्रणब मुखर्जी विचारों के प्रति दृढ़ थे। उन्हें जो उचित लगता था, उसे कहने और उसपर आचरण का उनमें साहस था। यही कारण था कि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व से उनका कई बार टकराव हुआ। इसी दृढ़ता से उन्होंने आरएसएस के आमंत्रण को स्वीकार किया था। इसके लिए उन्होंने कांग्रेस नेताओं के विरोध को दरकिनार कर दिया था। करीब दो वर्ष पहले नागपुर में संघ के समारोह में वह सम्मलित हुए। उनके व्याख्यान को लोग आज भी याद करते हैं।

उस समय उनके भाषण को सिलसिलेवार रूप में देखें तो लगेगा कि उन्होंने संघ को बेहतर ढंग समझा था। यही कारण है कि उनके और सरसंघचालक मोहन भागवत के विचारों का मूल तत्व एक जैसा था। वह यह कि भारत और विश्व की समस्याओं का समाधान भारतीय चिंतन से हो सकता है। उन्होंने संघ के समारोह में उदारता, राष्ट्रवाद, मानव कल्याण, सहिष्णुता, पंथ निरपेक्षता की बात उठाई थी। वैसे भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नकारात्मक हमलों के बावजूद इस शाश्वत चिंतन के ध्येय मार्ग पर चल रहा है।

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने नागपुर में उदार व शाश्वत भारतीय चिंतन से प्रेरित विचार व्यक्त किये थे। भारत बहुलतावादी देश है। ऐसी विविधता विश्व में कहीं नहीं है। ऐसे में हमारे सामने उदार चिंतन के अलावा सौहार्दपूर्ण ढंग से रहने का दूसरा कोई रास्ता नहीं है। दुनिया में ऐसा उदार चिंतन दुर्लभ है। सभ्यताओं का संघर्ष विश्व इतिहास की सच्चाई है, जो कि अपने तलवार के बल पर अपने मजहब के प्रचार का परिणाम था। हालांकि ऐसे लोगों के बीच भी भारतीय चिंतन वसुधा को कुटुंब मानने का सन्देश देता रहा, सर्वे भवन्तु सुखिनः की कामना करता रहा।

तब प्रणब मुखर्जी ने जिस पंथनिरपेक्षता की बात कही थी, वह ऐसे ही उदार चिंतन में संभव है। प्रणब मुखर्जी ने संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार को भारत माता का महान सपूत बताया था। वह स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। संघ की स्थापना के बाद भी कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन की व्यवस्था उन्होंने की थी। जाहिर है कि वह देश को स्वतंत्र कराने के प्रयास में लगे थे। यह प्रयास उन्होंने संघ की स्थापना के बाद भी जारी रखा। केवल तरीका बदला था।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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