
नई दिल्ली। ताजा जलवायु अध्ययन (Latest Climate study) ने दुनिया को आगाह किया है कि अगर ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) की वर्तमान रफ्तार जारी रही तो वर्ष 2100 तक रोजाना होने वाली भारी बारिश (Heavy rain) में लगभग 41 फीसदी तक बढ़ोतरी हो सकती है। यानी जैसी बारिश पहले कई साल में एक बार देखने को मिलती थी, वह अगले दशकों में आम बात बन सकती है। इसके असर के रूप में बाढ़, शहरी जलभराव, भूस्खलन, फसलों की बर्बादी और स्वास्थ्य संकट बड़ा रूप ले सकते हैं।
वैज्ञानिकों के अनुसार पहले उपयोग किए गए जलवायु मॉडल खतरे को कम आंकते थे, लेकिन नए हाई रिजॉल्यूशन मॉडल ने तेज बारिश का असली पैटर्न और उसकी भविष्य की गंभीरता को अधिक स्पष्ट रूप से दिखाया है। वैज्ञानिक बताते हैं कि ग्लोबल तापमान बढ़ने से हवा में नमी की मात्रा भी बढ़ जाती है। जितनी ज्यादा नमी, उतनी तेज और अचानक होने वाली बारिश। पहले बारिश पूरे मौसम में बराबर बिखरी रहती थी, लेकिन अब कम दिनों में ही बहुत ज्यादा पानी गिरने की प्रवृत्ति बढ़ रही है।
यही बदलाव आने वाले वर्षों में और तेज होने वाला है और भारी बारिश कई देशों में आम जलवायु वास्तविकता बन सकती है। पहले जिन जलवायु मॉडलों का इस्तेमाल किया जाता था, वे मौसम की गणना बहुत बड़े पैमाने पर करते थे, इसलिए छोटे स्तर की घटनाएं उनकी पकड़ में नहीं आती थीं। इसके कारण वे भारी बारिश के जोखिम को कम आंकते थे।
क्षेत्रीय स्तर पर खतरे की तीव्रता और असमानता
अत्यधिक वर्षा का असर हर जगह एक जैसा नहीं होगा। कुछ क्षेत्रों में जोखिम बहुत अधिक बढ़ेगा। उदाहरण के रूप में दक्षिण–पूर्वी अमेरिका में नए मॉडल के अनुसार भारी बारिश में 12 मिलीमीटर प्रतिदिन तक की बढ़ोतरी संभव है, जबकि पुराने मॉडल इसे सिर्फ 4 मिलीमीटर प्रतिदिन बताते थे। यानी खतरा पहले की तुलना में लगभग 3 गुना अधिक है। इसी तरह अत्यधिक खतरे वाले अन्य क्षेत्र हैं दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया, पूर्वी तथा मध्य अफ्रीका और अमेरिका के तटीय इलाक़े। इन जगहों पर बाढ़, भूस्खलन और शहरी जलभराव की घटनाएं मौजूदा समय से कई गुना अधिक हो सकती हैं।
किसानों और खाद्य सुरक्षा के लिए चेतावनी
अत्यधिक बारिश सिर्फ बाढ़ ही नहीं लाएगी, बल्कि खेती को भी बड़ा नुकसान पहुंचा सकती है। अचानक होने वाली तेज बारिश मिट्टी को बहा ले जाएगी, कटाई के समय फसलें नष्ट हो सकती हैं, और खाद्यान्न की आपूर्ति व्यवस्था में अव्यवस्था पैदा हो सकती है। वैज्ञानिकों के अनुसार यह असर 2030 के बाद तेज और 2050 के आसपास बेहद गंभीर रूप ले सकता है।
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