ब्‍लॉगर

केंद्र सरकार का ढुलमुल रवैया और न्‍यायालय की नाराजगी

-अनूप भटनागर

ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने विभिन्न मुद्दों का समाधान खोजने के बजाय उसे ज्यादा से ज्यादा समय तक लटकाये रखने की नीति बना रखी है। सरकार के इस रुख की वजह से उसे बार-बार न्यायपालिका की नाराजगी का सामना करना पड़ रहा है। केंद्र के ढुलमुल रवैये की वजह से अभी तक विधि आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति अधर में लटकी है तो राजद्रोह का मामला भी टालमटोल का शिकार बना हुआ है। यही स्थिति कई राज्यों में अल्पसंख्यक होने के बावजूद हिन्दुओं और अन्य अल्पसंख्यकों को अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में पहचान नहीं करने के कारण उन्हें इसके लाभ नहीं मिलने से संबंधित है। इस मुद्दे को सुलझाने में तत्परता दिखाने की बजाय इसके प्रति केंद्र के ढुलमुल रवैये से उच्चतम न्यायालय भी अचंभित है।

राज्य स्तर पर अल्पसंख्यक की श्रेणी में रहने वाले विभिन्न समुदायों को अल्पसंख्यकों के लाभ उपलब्ध कराने की मांग जोर पकड़ रही है। सवाल उठ रहे हैं कि राज्य स्तर पर अल्पसंख्यक कौन हैं और ऐसे समुदायाें की पहचान कर उन्हें अल्पसंख्यकों को मिलने वाली योजनाओं का लाभ क्यों नहीं दिया जा रहा है। इस मामले में शीर्ष अदालत में दाखिल हलफनामे में केंद्र ने पहले दलील दी थी कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग कानून, 1992 के तहत भाषाई या धार्मिक समुदायों को अल्पसंख्यक घोषित करने के राज्य सरकारों के अधिकारों को छीना नहीं गया है।

इस संबंध में मद्रास उच्च न्यायालय का एक फैसला बहुत ही दिलचस्प है, जिसमें अदालत ने कहा है कि कन्याकुमारी में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं जबकि जमीनी स्तर पर जनगणना में यह तथ्य परिलक्षित नहीं होता है। इसकी वजह ‘क्रिप्टो क्रिश्चियन’ होना बताया जाता है।


अदालत ने यह टिप्पणी भी की थी कि धर्म के संदर्भ में कन्याकुमारी की जनसांख्यिकीय स्थिति 1980 से ही बदल गयी है और यहां पर हिन्दू अल्पसंख्यक हैं लेकिन 2011 की जनगणना दूसरी तस्वीर पेश करती है। शीर्ष अदालत में दाखिल हलफनामे में केंद्र का तर्क है कि याचिका में शामिल मुद्दों के दूरगामी प्रभाव हैं और इसलिए सभी हितधारकों के साथ विचार-विमर्श के बगैर लिया गया फैसला देश के लिए जटिलता पैदा कर सकता है।

इससे पहले, मंत्रालय ने शीर्ष अदालत से कहा था कि राज्य सरकारें अपने राज्य के भीतर हिंदुओं सहित किसी भी धार्मिक या भाषाई समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित कर सकती हैं। इस संबंध में उसने महाराष्ट्र में ‘बहाई’ समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित किये जाने का उदाहरण भी दिया था।

केंद्र के इस तरह के अलग-अलग रुख अपनाने पर चिंता व्यक्त करते हुए न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति एमएम सुंद्रेश की पीठ ने कहा कि इस तरह के रवैये से कोई लाभ नहीं होगा। ढुलमुल रवैया अपनाने की बजाय उसे इस विषय पर राज्यों के साथ तीन महीने के भीतर परामर्श करके किसी निष्कर्ष पर पहुंचना होगा।

देश के पंजाब, कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, लक्षद्वीप, मिजोरम, लद्दाख और नगालैंड सहित कम से कम दस राज्यों में हिंदुत्व, बहाई और यहूदी समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित करने के अनुरोध के साथ शीर्ष अदालत में एक जनहित याचिका लंबित है। इस याचिका पर शीर्ष अदालत ने केंद्र से जवाब मांगा था। उसने केंद्र सरकार के टालू रवैये पर नाराजगी जाहिर की है और कहा है कि ये ऐसे मामले हैं जिनके समाधान की आवश्यकता है और हर मामले में फैसला नहीं सुनाया जा सकता है।

याचिकाकर्ता भाजपा नेता अश्विनी कुमार उपाध्याय का तर्क है कि लक्षद्वीप और जम्मू कश्मीर में मुस्लिम बहुमत में हैं जबकि असम, पश्चिम बंगाल, केरल, उत्तर प्रदेश और बिहार में इस समुदाय की काफी बड़ी आबादी है लेकिन इन्हें यहां अल्पसंख्यक ही माना जाता है और उन्हें इनके निमित्त लाभ दिये जा रहे हैं।

उपाध्याय चाहते हैं कि इन राज्यों में अल्पसंख्यकों की पहचान के लिए न्यायालय केंद्र को दिशा-निर्देश जारी करने का निर्देश दे ताकि अपनी धार्मिक और भाषाई संख्या के आधार पर नगण्य और राजनीतिक रूप से प्रभावहीन समुदाय अपनी पसंद के स्कूल स्थापित कर सकें और उन्हें इनके संचालन का अधिकार मिल सके। शीर्ष अदालत में पहले से ही पांच समुदायों- मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी को अल्पसंख्यक घोषित करने की केंद्र की अधिसूचना को चुनौती देने वाली याचिका लंबित है।

अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय भी लगातार यही तर्क दे रहा है कि इस मामले में एक समग्र दृष्टिकोण अपनाकर ही इसका समाधान किया जा सकता है। उम्मीद है कि शीर्ष अदालत के कड़े रुख के मद्देनजर केंद्र सरकार शीघ्र संबंधित राज्य सरकारों तथा अन्य हितधारकों के साथ विचार-विमर्श करके किसी स्वीकार्य निर्णय पर पहुंचेगी और इस विवाद को हमेशा के लिए समाप्त करने का प्रयास करेगी।

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